॥ श्री भैरवी उवाच ॥
श्रुतं देव मया सर्व रुद्रयामलसंभवम् । त्रिकभेदमशेषेण सारात्सारविभागशः ॥१॥ अद्यापि न निवृत्तो मे संशयः परमेश्वर । व्याख्या-तन्त्र शास्त्रों के उपदेष्टा भगवान शिव स्वयं भैरव स्वरूप हैं तथा भैरवी उन्हीं की शक्ति है जो उनसे भिन्न नहीं है किन्तु वह शिव की परा शक्ति से अनभिज्ञ है। उसने तन्त्र शास्त्र के कई ग्रन्थ पढ़े हैं किन्तु उसका संशय नहीं मिटा है। वह भगवान् शिव की पराशक्ति को जानने की इच्छा से उनसे कई प्रश्न करती है जिनके माध्यम से वह जानना चाहती है कि आपका वास्तविक स्वरूप क्या है तथा इस सृष्टि में आपकी क्या भूमिका है? यह सृष्टि आप से भिन्न है अथवा अभिन्न है? यह आप ही का स्वरूप है अथवा आपकी शक्ति का स्वरूप है? तन्त्र शास्त्रों में भगवान् के पाँच कार्य माने गये हैं सृष्टि रचना, स्थिति और संहार करना तथा तिरोधान व अनुग्रह भी उसके कार्य माने गये हैं। इनमें तिरोधान के कारण यह जीव अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है जिससे वह जन्म-मृत्यु के फेर में पड़ जाता है किन्तु ईश्वर के अनुग्रह के कारण ही वह इस जन्म मृत्यु के चक्कर से छूटकर मुक्त हो जाता है। ईश्वर के इस अनुग्रह को ही तन्त्र शास्त्र में शक्तिपात कहा गया है। शक्तिपात अर्थात् जिस पर ईश्वर की कृपा दृष्टि होती है उसी की रुचि शास्त्रों के अध्ययन में होती है तथा उसी पर किसी सद्गुरु की कृपा होती है जिससे वह शास्त्रों के अध्ययन तथा गुरु के ज्ञानोपदेश से अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेता है जिससे वह मुक्त हो जाता है।
उस परमतत्त्व के ज्ञान के लिए तन्त्र शास्त्र में अनुपाय पद्धति अर्थात् सहज योग की बात कही गयी है कि बिना यौगिक क्रिया के उसका ज्ञान नहीं होता तथा बिना ज्ञान के मुक्ति भी नहीं होती। भैरवी इसी अनुपाय पद्धति के विषय में जानना चाहती है जिससे वह स्वयं परमात्म स्वरूप में विलीन हो सके। इसके लिए भैरवी, भगवान् भैरव (शिव) से कई प्रश्न पूछती है जिनके समाधान में भगवान् भैरव उसे ११२ धारणाओं का वर्णन कर उसे सन्तुष्ट करते हैं जिससे उसका संशय दूर हो जाता है तथा अपनी परितृप्ति (प्रसन्नता) का वर्णन करते हुए वह शिव के साथ तन्मय हो जाती है। कोई भी साधक इसी विधि का यदि सफलतापूर्वक प्रयोग करे तो वह भी मुक्त हो सकता है। यह अनुपाय अर्थात् सहज योग की विधि है। यह अनुपाय पद्धति क्या है? वेदान्त तथा तन्त्र की विधि अनुपाय की है। सृष्टि में जिसे परम तत्त्व, ईश्वर ब्रह्म आदि कहा गया है वह एक चेतन शक्ति है जो शरीर में आत्मरूप है।
उसे जान लेना ही सृष्टि के रहस्यों को जान लेना है। उसे किसी क्रिया से नहीं जाना जा सकता। वह बोधस्वरूप है जिसका मात्र बोध होता है। वह कोई वस्तु नहीं है जिसको प्राप्त करने के लिए कोई प्रयत्न किया जाय या कोई उपाय किया जाय। यह अनुपाय का विषय है। पतंजलि का मार्ग क्रिया का मार्ग है, उपाय का मार्ग है किन्तु ज्ञान का मार्ग केवल जानने की बात कहता है कि जो उपलब्ध ही है उसे जान लेना मात्र है। सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए उपाय करना पड़ता है किन्तु ईश्वर प्राप्ति उपाय से नहीं होती, यह अक्रिया का मार्ग है। क्रिया में अहंकार होता है कि ‘मैं कर रहा हूँ।’ यह ‘मैं पन’ ही बाधा बन जाता है। परमात्मज्ञान ईश्वर कृपा से ही होता है जिसके लिए पात्रता अनिवार्य शर्त है। सभी प्रयत्न पात्रता प्राप्ति के लिए ही करना पड़ता है तब ईश्वर कृपा स्वतः हो जाती है। यह आयास रहित मार्ग है। कठोपनिषद् में भी कहा गया है कि “यह आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न वह बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको वह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह आत्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।” यही बात मुण्डक उपनिषद् में भी कही गई है। अतः वेदान्त और तन्त्र इस एक ही बात पर सहमत हैं कि यह अक्रिया का, अनुपाय का मार्ग है जिसे जानना मात्र है। यह बोध स्वरूप है। भगवान् शिव की ये ११२ विधियाँ केवल बोध स्वरूप ही हैं। इस ग्रन्थ का आरम्भ ही भैरव-भैरवी सम्वाद के रूप में हुआ है जिसमें भैरवी एक जिज्ञासु की भाँति सर्वप्रकाशमय भगवान् भैरव (शिव) से पूछती है कि “”हे देवादि देव परमेश्वर समस्त विश्व को प्रकाशित करने वाले स्वात्मस्वरूप भगवन् समस्त रोगों को नष्ट करने वाले रुद्र और अपनी शक्ति के सामरस्य स्वरूप से जिसकी उत्पत्ति हुई है ऐसे समस्त शास्त्रों को मैंने पढ़ लिया है, सुन लिया है। ये शास्त्र त्रिकभेद से अर्थात् तीनों तत्त्वों के भेद से (परा, परापरा, तथा अपरा) शक्ति के सारभूत शिव, शक्ति और जीव नामक तीनों भेदों से तथा ज्ञान, क्रिया आदि के प्राधान्य से और अप्राधान्य का प्रतिवादन करने से अनेक भेदों में विभक्त हो जाते हैं उन सब के सारभूत त्रिक शास्त्र को मैंने पूरी सावधानी से सुन लिया है किन्तु मेरा सन्देह अभी भी दूर नहीं हुआ है। शिव और शक्ति के सामरस्य से उत्पन्न हुए ब्रह्म यामल, विष्णु यामल, रुद्र यामल, भैरव यामल आदि में जो कुछ आपने कहा है वह सब मैंने पहले आपसे सुना ही है। फिर भी यह सन्देह रह ही गया कि शिव, शक्ति और जीव में आन्तर रूप में तो एकता ज्ञात होती है किन्तु बाह्य रूप में तीनों में भिन्नता का ही बोध होता है इसका कारण मेरा अज्ञानमात्र है। यह भी मैंने सुना है कि “वेद से श्रेष्ठ शैव शास्त्र है, शैव से श्रेष्ठ वाम शास्त्र है, वाम से श्रेष्ठ दक्षिण शास्त्र है, दक्षिण से श्रेष्ठ कौल शास्त्र है और उससे भी श्रेष्ठ त्रिक शास्त्र है। इनसे भी श्रेष्ठ अन्य शास्त्र है उनको भी मैंने सुन लिया फिर भी मेरा संशय अभी दूर नहीं हुआ है। अद्वैत सिद्धान्त के अनुसार जीव शिव से अभिन्न है किन्तु माया के कारण उसका स्वरूप संकुचित हो गया है जिससे जीव को शिव से भिन्न मान लिया गया है। मेरे इसी अज्ञान को दूर करने की कृपा करें।”
किं रूपं तत्त्वतो देव शब्दराशिकलामयम् ||२|| किं वा नवात्मभेदेन भैरवे भैरवाकृतौ ।
त्रिशिरोभेदभिन्नं वा किं वा शक्तित्रयात्मकम् ||३|| नादबिन्दुमयं वाऽपि किं चन्द्रार्धनिरोधिकाः ।
चक्रारूढमनच्कं वा किं वा शक्तिस्वरूपकम् ।।४।। व्याख्या- यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि मात्र पुस्तकें पढ़ लेने अथवा प्रवचन मात्र सुन लेने से ज्ञान नहीं होता। यह ईश्वरीय ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह के बिना तथा बिना गुरु के भी नहीं होता। पुस्तकें एक वाग्जाल है जिससे मनुष्य भटका अधिक है, पहुँचा नहीं है। यदि पुस्तकों से तथा उपदेशों को सुनने मात्र से ज्ञान हो जाता तो आज संसार में कोई अज्ञानी रहता ही नहीं। यह ज्ञान का मार्ग अति कठिन व दुर्गम है जिसे बिना गुरु की सहायता के पार नहीं किया जा सकता।
कठोपनिषद् में भी कहा गया है कि- “उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के समीप जाकर ज्ञान प्राप्त करो। जिस प्रकार छुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बताते हैं।” (३/१४) भैरवी ने भी भगवान् भैरव से तन्त्र के कई ग्रन्थों को सुना किन्तु इन सबके सुनने से उसको कोई समाधान नहीं मिला। इन ग्रन्थों को सुनने से उसका संशय और बढ़ गया कि वे सभी ग्रन्थ भिन्न-भिन्न बातें कहते हैं अतः इनमें कौन सही है तथा कौन गलत है; इसका वह निर्णय नहीं कर पा रही है। अतः वह फिर भगवान् शिव से पूछती है कि इनमें सत्य क्या है तथा जिस परमतत्त्व की बात आप कहते हैं उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसे मुझे बताइये। वह शिव से आठ ऐसे प्रश्न पूछती है तथा उनका समाधान चाहती है।
उसका पहला प्रश्न है कि वह परमतत्त्व कैसा है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उसके स्वरूप को भिन्न-भिन्न तन्त्र ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न बताया गया है। एक ग्रन्थ में उसे शब्द राशिमय बताया गया है। क्या यही उसका वास्तविक स्वरूप है? क्या यह भैरव बोध-स्वरूप है जो सदा अपनी शक्ति से संयुक्त रहता है? इन दोनों के संयोग से ही ‘अहम्’ की निष्पत्ति होती है? इसलिए यह बोध भैरव क्या शब्द ब्रह्म स्वरूप है? पुराणों में शब्दब्रह्म को परब्रह्म से भिन्न बताया गया है कि शब्दब्रह्म में निष्णात व्यक्ति परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। अतः ये दोनों क्या भिन्न हैं? कुल दर्शन में उसे शब्द राशिमय कहा गया है।
भैरवी का दूसरा प्रश्न है कि क्या भयानक स्वरूप वाले भैरव की नौ शक्तियों के रूप में वह परमतत्त्व अवस्थित है? नेत्र तन्त्र में नवात्म को ही परम तत्त्व माना है। भैरवी का तीसरा प्रश्न है कि क्या त्रिशिरा भैरव ही वह परम तत्त्व है जिसका वर्णन त्रिशिरा तन्त्र में है? इसका वर्णन तन्त्रालोक में भी है। भैरवी का चौथा प्रश्न है कि क्या वह शक्ति त्रयात्मक है? अर्थात् शिव, शक्ति तथा जीवरूप से तथा इसकी अधिष्ठात्री परा, परापरा और अपरा नामक तीन शक्तियों वाला है? अथवा इच्छा, ज्ञान व क्रिया ही इसका स्वरूप है? जैसा विभिन्न तन्त्र ग्रन्थों में मिलता है। भैरवी का पाँचवां प्रश्न है कि क्या वह नाद बिन्दु स्वरूप है? बिन्दु प्रकाश स्वरूप है तथा नाद विमर्श रूप है।
भैरवी का छठा प्रश्न है कि इस नाद बिन्दु के ही रूप अर्द्ध-चन्द्र निरोधिका आदि उसके स्वरूप हैं?
भैरवी का सातवां प्रश्न है क्या उसका स्वरूप चक्रारूढ़ है अर्थात् वह मूलाधार आदि स्थानों में षद्दल आदि स्थलों में आरूढ़ है अर्थात् इनमें विद्यमान कोई तत्त्व है? या वह कुण्डालिनी की आकृति का कोई तत्त्व है?
भैरवी का आठवां प्रश्न है कि क्या वह केवल शक्ति स्वरूप है? भैरवी इस प्रकार भगवान् भैरव के सामने आठ विकल्प देती है कि शास्त्रों में ये सब भिन्न-भिन्न बातें कही गई है जिनमें कौन सी सत्य है तथा आपका वास्तविक स्वरूप इनमें कौन सा है? कृपया यह मुझे बताने की कृपा करें।
परापरायाः सकलमपरायाश्च वा पुनः । पराया यदि तद्वत् स्यात् परत्वं तद्विरुध्यते ॥५॥ नहि वर्णविभेदेन देहभेदेन परत्वं निष्कलत्वेन सकलत्वे न तद्भवेत् ॥६॥
व्याख्या- पूर्व में इस शक्ति के तीन रूप बताये गये हैं-परा, परापरा तथा अपरा। इनके सम्बन्ध में भैरवी पुनः प्रश्न करती है कि परापर और अपरा का सकल (साकार) स्वरूप बन सकता है किन्तु परा देवी को भी यदि सकल (साकार) माना जायेगा तो उसका परत्व ही नष्ट हो जायेगा अतः परा का स्वरूप निष्कल (निराकार) ही मानना पड़ेगा और जब वह निष्कल (निराकार) है तो पूजा, ध्यान आदि की स्थिति कैसे बन सकती है क्योंकि पूजा आदि तो सकल स्वरूप की ही जा सकती है। क्रम दर्शन में शक्ति को ही परमतत्त्व माना गया है तथा यह शक्ति ही शिव को उपदिष्ट है। इसी के आधार पर भैरवी पूछती है कि क्या यह शक्ति ही परमतत्त्व है? वर्णों अथवा देह की विशेषता के कारण उनमें परत्व नहीं होता। जो विशेषता निष्कल (निराकार) की है वह सकल (साकार) में प्राप्त नहीं हो सकती अतः परावस्था को परापरा, अपरा अवस्था से भिन्न ही मानना पड़ेगा। भैरवी पूछती है कि क्या मेरा यह विचार सही है? कृपया बताइये।
प्रसादं कुरु मे नाथ निःशेषं छिन्धि संशयम् ।
इस प्रकार भैरवी ने आगम शास्त्रों में जो भिन्न-भिन्न विचार दिये गये हैं उनको लेकर भगवान् शिव से पूछती है कि इन सबमें आपका वास्तविक स्वरूप क्या है इसे बताकर आप मेरे संशय को दूर करिये। वह परमतत्त्व वास्तव में निराकार है अथवा साकार है? यदि वह निराकार है तो वह साकार सृष्टिरूप कैसे बन जाता है? यदि साकार ही है तो उसे निराकार क्यों कहा जाता है? अथवा निराकार और साकार उसके दो रूप हैं अथवा दोनों कोई भिन्न तत्त्व हैं? अतः इन सबका कृपा करके समाधान करने की कृपा करें।
॥ श्री भैरव उवाच ॥ साधु साधु त्वया पृष्टं तन्त्रसारमिदं प्रिये । गूहनीयतमं भद्रे तथापि कथयामि ते ।।७।।
व्याख्या – यह भैरवी स्वयं भगवान् भैरव की ही संविद शक्ति है किन्तु वह भी उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती। वह साकार और निराकार के रहस्यों से सर्वथा अनभिज्ञ रहती है जिससे वह बार-बार प्रश्न पूछती रहती है कि इन दोनों का रहस्य क्या है? यदि निराकार ही सृष्टिरूप में साकार बनता है तो उसकी विधि क्या है? यदि आरम्भ में ही दोनों दो भिन्न शक्तियाँ हैं तो इन दोनों का संयोग किस प्रकार व किस कारण से होता है? वह परमतत्त्व चेतन स्वरूप है अथवा जड़ स्वरूप है? यदि वह चेतन तत्त्व है तो जड़ सृष्टि की रचना के लिए क्या करता है? शिव और शक्ति दो भिन्न तत्त्व हैं अथवा एक ही के दो रूपमात्र हैं ऐसे अनेक प्रश्न पूछे। इन प्रश्नों को सुनकर भगवान् भैरव अति प्रसन्न हुए। कोई जिज्ञासु जब अपनी आध्यात्मिक शंकाओं को किसी गुरु के सामने रखता है तो गुरु को काफी प्रसन्नता होती है क्योंकि ऐसा ज्ञान किसी व्यक्ति विशेष के लिए ही न होकर समस्त मानवजाति के हित में होता है जिसे देने के लिए गुरु सदा उत्सुक रहता है। किसी गूढ़ व रहस्यमय ज्ञान को देने के लिए गुरु स्वयं योग्य शिष्य की तलाश में रहता है जिसे वह ज्ञान दे सके। कृष्ण ने भी अर्जुन को ही इसका योग्य शिष्य व सुपात्र समझकर उसे गीता के रहस्य को प्रकट किया जो किसी अयोग्य पात्र को नहीं दिया जा सकता था। ऐसा ही रहस्यमय ज्ञान भगवान् भैरव ने भैरवी को देने के लिए उसे योग्य पात्र समझकर कहने लगे हे प्रिये! तू बड़ी प्रतिभासम्पन्न है जो ऐसे प्रश्न पूछ रही है। सामान्य व्यक्ति ऐसे गूढ़ प्रश्न नहीं पूछ सकता। तू जिस प्रकार के प्रश्न पूछ रही है कि वे सब समस्त मानव जाति के लिए कल्याणकारी है तथा परमानन्द की प्राप्ति के लिए है। इस प्रकार के प्रश्न मुझे बहुत प्रिय है जिनके लिए मैं बार-बार तुझे साधुवाद देता हूँ। सब शास्त्रों में कही गई सारभूत बात यह अत्यन्त गोपनीय है व रहस्यमय है जिसे मैं तुम्हें इसलिए बता रहा हूँ कि तुम्हारे में इसको समझ सकने की व इसे आत्मसात करने की क्षमता है। इस रहस्य को बहुत छिपाकर रखना चाहिए तथा बिना योग्य पात्र के इसे किसी को भी नहीं देना चाहिए। इस पर विचार, ध्यान व मनन करते रहना चाहिए। समस्त तन्त्र ग्रन्थों का यही सार है जिसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ। यह ज्ञान वेदों से भी उत्तमकोटि का है। इससे उच्च कोई ज्ञान नहीं है, ऐसा मान लेना चाहिए।
यटिकञ्चित् सकलं रूपं भैरवस्य प्रकीर्तितम् । तदसारतया देवि विज्ञेयं शक्रजालवत् ||८|| मायास्वप्नोपमं चैव गन्धर्वनगरभ्रमम् । ध्यानार्थ भ्रान्तबुद्धीनां क्रियाडम्बरवर्तिनाम् ।।९।।
केवलं वर्णितं पुंसां विकल्पनिहतात्मनाम् ।।१०।। व्याख्या- भगवान् भैरव भैरवी द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर में सर्वप्रथम निराकार (निष्कल) व साकार (सकल) स्वरूप का वर्णन करते हैं क्योंकि सामान्य मनुष्य उसी को सत्य मानकर उस निष्कल (निराकार) स्वरूप की अनभिज्ञता के कारण उसकी उपेक्षा करता रहा है। वे कहने लगे कि इस सृष्टि में जो कुछ भी साकार रूप में दिखाई देते हैं वे सब अस्थिर विनाशी है, सदा नहीं रहने वाले हैं किन्तु अज्ञानीजन उन्हीं को सत्य व शाश्वत मानकर उन्हीं की पूजा व आराधना करते रहते हैं कि ये ही हमें सुख व आनन्द दे सकते हैं। इनके सिवा और कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो हमें आनन्द दे सके। इस मिथ्या भ्रम में वे अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं व उन्हें हाथ कुछ भी नहीं है। इसी से वे इस संसारचक्र में बार-बार घूमते रहते हैं व जीवनमृत्यु के चक्कर में फँसे रहते हैं। वे अपने उन्नति के मर्म को समझ ही नहीं सकते तथा विभिन्न कर्मकाण्डों में उलझकर विभिन्न देवताओं की पूजा, आराधना करते रहते हैं कि ये देवगण हमें धन, सम्पत्ति, पुत्र, पुत्री, यश, कीर्ति आदि प्रदान करेंगे। ये जीवन के उच्च रहस्यों को जान ही नहीं सकते व घाणी के बैल की भाँति इसी के चारों ओर जन्मों जन्मों तक चक्कर लगाते रहते हैं। जीवन का इससे अधिक और क्या दुरुपयोग हो सकता है। जिसे किसी उपयोगी वस्तु का ज्ञान नहीं है वही अनुपयोगी वस्तु को ग्रहण करने की जिज्ञासा करता है किन्तु उपयोगी वस्तु का ज्ञान होने पर वह बिना किसी संकोच के अनुपयोगी का त्याग कर देता है। अतः हे देवी! सर्वप्रथम उसे उपयोगी वस्तु का ज्ञान आवश्यक है। मैं उसी का तुम्हें उपदेश दे रहा हूँ।
हे देवी! इस भैरव के निष्कल (निराकार) व सकल (साकार) ये दो रूप शास्त्रों मे बताये गये हैं। इस समस्त जगत् में जो भी विभिन्न रूप दिखाई देते हैं वे ही इस भैरव का साकार स्वरूप हैं ये सब रूप इन्द्रजाल के समान माया से निर्मित गन्धर्व नगर के समान भ्रमपूर्ण हैं जिसे सत्य मान लेना ही मिथ्या धारणा है तथा ये सभी स्वप्न में देखी गई वस्तु के समान अस्थिर व असत्स्वरूप है अथवा इन्द्रजाल के समान भ्रमपूर्ण है इसलिए यह असार है किन्तु भ्रान्त बुद्धि वाले इसी को सत्य मानकर इसी की पूजा आराधना करते रहते हैं तथा इसी के द्वारा फल की आकांक्षा करते हैं कि ये देवगण ही हमें सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ देंगे। इन्हीं सकाम कर्मों के कारण वे अपने वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रहते हैं। किन्तु यह साकार की उपासना का उपदेश उन अज्ञानियों के लिए ही है जो अपने वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। साकार उपासना का उपदेश इसलिए किया गया है कि इससे वे निराकार स्वरूप में प्रवेश पाने के लिए अपेक्षित योग्यताएँ प्राप्त कर सके। इससे व्यक्ति में ध्यान की योग्यताएँ प्राप्त होती हैं जिससे निराकार में प्रवेश का द्वार खुलता है किन्तु जो तत्त्वज्ञानी हैं जिन्हें निराकार स्वरूप में जाना है उनके लिए इस सकारोपासना की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मृगमरीचिका में जल की भ्रान्ति हो जाती है, जिस प्रकार रज्जु को सर्प समझ लेते हैं, जिस प्रकार सीप में चाँदी की भ्रान्ति हो जाती है उसी प्रकार अज्ञानीजनों को इस साकार सृष्टि में ही सत्य होने की भ्रान्ति हो जाती है, जो मिथ्या धारणा है। जब तक किसी को सत्य का ज्ञान नहीं हो जाता तभी तक वह असत्य में ही रुचि लेता है। सत्य ज्ञान की प्राप्ति पर वह इस मिथ्या ज्ञान का इसी प्रकार त्याग कर देता है जैसे साँप अपनी केंचुली उताकर फेंक देता है अथवा व्यक्ति अपने गन्दे वस्त्रों का त्याग कर देता है। निराकार ज्ञान होने पर भी यदि साकार का त्याग नहीं हुआ तो वह साकार भी बन्धन बन जाता है जिसके त्याग के बिना मुक्ति नहीं हो सकती। भैरव के साकार स्वरूप का वर्णन अज्ञानीजनों को समार्ग पर लाने के लिए ही शास्त्रों में उसका वर्णन किया गया है। उसके निष्कल (निराकार) स्वरूप का वर्णन नहीं हो सकता वह तो केवल बोध स्वरूप है जिसका ज्ञानमात्र होता है वह स्वानुभव का ही विषय है। यह सारा विश्व उसी का विलास मात्र है जो उसे किसी प्रकार भिन्न सत्ता वाला नहीं है। जब वही एक तत्त्व सर्वत्र व्याप्त है निराकार व साकार उसी एक के दो रूप मात्र हैं तो फिर कौन किसकी पूजा करे, कौन किसकी आराधना करे तथा कौन किस पर अनुग्रह करे। यह सब द्वैत में ही सम्भव है। अज्ञानी द्वैत को ही स्वीकार करता है अतः इन सारे कर्मकाण्डों का विधान उन्हीं को ध्यान में रखकर शास्त्रों में किया गया है अन्यथा जो ज्ञान को प्राप्त हो चुके हैं जिन्होंने निराकार के ज्ञान द्वारा अद्वैत को ही स्वीकार कर लिया है उनके लिए इन शास्त्रों व कर्मकाण्डों का कोई उपयोग ही नहीं रहता। ये कर्मकाण्ड आदि वे नौकाएँ हैं जिनके द्वारा नदी पार की जा सकती है किन्तु नदी पार हो जाने पर इन नौकाओं को छोड़ देना ही बुद्धिमानी है। वाहनों की आवश्यकता गन्तव्य तक पहुँचने के लिए होती है। गन्तव्य तक पहुँचने पर उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती। अतः ये सब शास्त्र व कर्मकाण्ड आदि वाहन स्वरूप ही हैं। निराकार में प्रविष्ट होने पर सभी कुछ त्याग देना ही श्रेयस्कर है।
तत्त्वतो च नवात्माऽसौ शब्दराशिर्न भैरवः । न वासौ त्रिशिरा देवो न च शक्तित्रयात्मकः ।।११।। नादबिन्दुमयो वापि न चन्द्रार्थनिरोधिकाः । न चक्रक्रमसंभिन्नो न च शक्तिस्वरूपकः ।।१२।।
व्याख्या-पूर्व में श्लोक २-३-४ में भैरवीदेवी भगवान्शव से पूछती है कि शास्त्रों में उस परमतत्त्व के कई रूप बताये गये हैं जिससे उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता कि वह कैसा है? इसके लिये वह भगवान से आठ प्रश्न करती है जिसमें वे पूछती है कि उस परमतत्त्व का स्वरूप शब्द राशिमय है अर्थात् वह शब्द ब्रह्मस्वरूप है अथवा वह नवात्म रूप वाला है अर्थात् उस भैरव की वामा प्रभृति नौ शक्तियों के रूप में यह परमतत्त्व अवस्थित है अथवा वह त्रिशिर भैरव तन्त्र में निर्दिष्ट शिव शक्ति व जीव तथा इच्छा, ज्ञान व क्रिया रूप है अथवा वह परा, परापरा व अपरा नामक तीन शक्तियों वाला है अथवा वह नाद बिन्दु स्वरूप अथवा अर्द्धचन्द्र निरोधिका उसका रूप है अथवा क्या वह मूलाधार आदि स्थानों में षट्दल आदि स्थानों वाले चक्रों में आरूढ़ है अर्थात् वह मूलाधार चक्र में स्थित कुण्डलिनी की आकृति का कोई तत्त्व है, अथवा क्या वह शक्ति के रूप में विद्यमान है आदि।
भगवान् शिव इन सब शंकाओं को नकार देते हैं तथा उसके वास्तविक स्वरूप को इन सबसे भिन्न बताते हुए कहते हैं कि वास्तव में यह भैरव न तो नवात्म रूप है अर्थात् न तो नवतत्त्व स्वरूप या वामादि नवशक्ति रूप है, न शब्दराशि रूप है, न त्रिशिर भैरव है, न शिव शक्ति स्वरूप है, न नादबिन्दु स्वरूप है, न अर्द्ध-चन्द्र निरोधिका आदि कलाएँ ही उसका स्वरूप है, वह न तो षट्चक्रों का भेदन करके ही जाना जाता है और न कुण्डलिनी आदि शक्ति को धारण करने वाला है। ये सभी स्वरूप उस बोधभैरव का प्रतिनिधित्व नहीं करते क्योंकि उसका स्वरूप तो अकथ्य है जिसका कथन शब्दों में नहीं किया जा सकता। वह अवर्णनीय है। उसको समझाने के लिए किसी न किसी कल्पना का सहारा लेना पड़ेगा। ऊपर वर्णित सभी रूप भी कल्पना के सहारे ही खड़े हैं। वह स्वतन्त्र स्वभाव वाला है। उसका न कोई कारण है, न कार्य। वह सभी उपमाओं से परे है। वह एक ही अद्वितीय है, अद्वय है। उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। सभी कुछ उसी के विभिन्न रूपमात्र हैं। वह दृश्य भी नहीं है जिसे देखा जा सके। वह किसी प्रकार की कल्पना से भी परे है। वह केवल बोधस्वरूप है जिसे स्वानुभव से ही जाना जा सकता है। उसकी परोक्ष अनुभूति ही होती है। उसके होने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। वही एकमात्र चैतन्य स्वरूप है।
अप्रबुद्धमतीनां हि एता बालविभीषिकाः । मातृमोदकवत् सर्वे प्रवृत्त्यर्थमुदाहृतम् ।।१३।।
व्याख्या – यदि यह सब कल्पनामात्र है तो ऐसी कल्पना करने की क्या आवश्यकता थी? सीधे ही इसका कथन क्यों नहीं किया गया? इस मिथ्या कल्पना से और भ्रम पैदा हो गया कि इन दोनों साकार व निराकार में कौन सही है? साकार स्वरूप की तो प्रत्यक्ष अनुभूति होती है जिससे जीव इसी को सत्य मानने लगता है तथा निराकार में उसकी कोई रुचि नहीं होती। वह प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानकर चलता है। वह साकार से ही प्रभावित होकर उसी में सुख मानकर उसी के भोग में आनन्द का अनुभव करने लगता है। वह मुक्ति की इच्छा ही क्यों करने लगा? इसी कारण यह सब भोगवादी प्रवृत्ति का बनता जा रहा है। वह स्वयं नरक, मुक्ति, मोक्ष के विषय में सोचता ही नहीं। यह निराकार का ज्ञान कुछ ही प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए है जिनको इस ज्ञान में किसी कारण से रुचि हो गई है अन्यथा इस ओर सामान्यजन की इसमें रुचि ही नहीं होती तथा इस उच्चज्ञान को वह ग्रहण कर ही नहीं सकता जिससे इसकी उपयोगिता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी ध्यान में रखना है कि हर कठिन वस्तु को प्राप्त करना मुश्किल ही होता है। आरम्भ में बच्चा विद्यालय जाने व पढ़ाई करने में भी आलस्य करता है। वह कई बहाने बनाता है किन्तु माता पिता को शिक्षा की उपयोगिता को देखकर उसे बहला-फुसलाकर तैयार करना पड़ता है उसे शिक्षा का महत्त्व समझाना पड़ता है। धीरे धीरे जब उसकी रुचि जाग्रत हो जाती है तो वह उसके महत्त्व को समझने लग जाता है। इसी प्रकार भैरव कहते हैं कि जो अप्रबुद्धजन है, जिनकी बुद्धि का विकास नहीं हुआ है तो उन्हें छोटी-छोटी बातें बताकर उनको इसके लिए तैयार किया जाता है। ईश्वर कृपा भी सब पर नहीं होती। वह भी योग्य पात्र पर ही होती है जिसके लिए आरम्भ में प्रयत्न करना ही पड़ेगा। इसी के लिए शास्त्रों में उनके लिए कर्मकाण्डों का विधान किया गया है जिससे वे बुराईयों का त्यागकर सद्कर्म की और प्रवृत्त हो सके। इससे उसकी चित्त शुद्धि होती है तथा उच्चज्ञान प्राप्त करने की उसकी क्षमता का विकास होता है। इसके लिए उसे ईश्वर के कई रूपों में से किसी एक की उपासना के लिए कहा जाता है। यह उसकी बाल विभीषिका के रूप में विहित है। जिस प्रकार रोते हुए बालक को भूत का डर दिखाकर अथवा हौआ का भय दिखाकर उसे शान्त कर दिया जाता है तथा उसकी गलत जिद को छुड़ाने के लिए उसे झूठे प्रलोभन दिये जाते हैं तथा कड़वी दवा खिलाने के लिए उसे लड्डू या मिठाई देकर उसे खिलाई जाती है उसी प्रकार अप्रबुद्धजनों को भाँति-भाँति की सिद्धियों के साधन बताकर उन्हें आराधना में लगाया जाता है। फिर उन्हें क्रमशः परभैरव अवस्था तक पहुँचाया जाता है। अतः यह साकार की उपासना उन्हीं के लिए है जिसका शास्त्रों में विधान किया गया है।
दिक्कालकलनोन्मुक्ता देशोद्देशाविशेषिणी । व्यपदेष्टुमशक्याऽसावकथ्या परमार्थतः ।।१४।।अन्तःस्वानुभवानन्दा विकल्पोन्मुक्तगोचरा । याऽवस्था भरिताकारा भैरवी भैरवात्मनः ॥१५॥
तद्वपुस्तत्त्वतो ज्ञेयं विमलं विश्वपूरणम् ।
व्याख्या–भगवान् भैरव ने सर्वप्रथम अपने सकल (साकार) स्वरूप का वर्णन किया तो भैरवी ने फिर पूछा कि यदि ऊपर जो आपने कहा है वह आपका साकार स्वरूप है तो फिर आपका निष्कल (निराकार) स्वरूप कैसा है? इसे बताने का कष्ट करें जिससे मेरा पराशक्ति सम्बन्धी संशय दूर हो सके? भैरवी के इसी संशय को दूर करने के लिए भैरव कहने लगे कि परभैरव की यह परावस्था ऐसी है जिसका कथन नहीं किया जा सकता। जिसका कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं उसको नाम कैसे दिया जाये? किसी वस्तु को नाम तो तभी दिया जा सकता है जब उसका कोई रूप हो, उसका कोई आकार हो, वह कोई वस्तु जैसा हो किन्तु उसका ऐसा कोई रूप व आकार ही नहीं है तो उसके लिए क्या कहा जाये ? वह किसी स्थान विशेष में भी नहीं है, न किसी दिशा विशेष में ही है जहाँ जाकर उसे ढूँढा जा सके, न वह किसी काल विशेष में ही है कि वह पहले था, इस समय है अथवा भविष्य में होने वाला है। इस प्रकार वह स्वरूप दिशा और काल की कल्पना से परे है। उसके लिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह दूर किसी देश में स्थित है अथवा निकट ही है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। अतः उसकी किसी विशेषता का वर्णन नहीं किया जा सकता कि वह कौन है, कैसा है तथा कहाँ है आदि? उसे देश और काल की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। अतः उसके स्वरूप का वर्णन करना अति कठिन है। उसके स्वरूप का वाणी से कथन नहीं किया जा सकता, न उसके स्वरूप को किसी अन्य विधि से ही समझाया जा सकता है। जो वस्तु, दिशा, काल, देश, नाम, रूप वाली हो तो उसी का कथन सम्भव है किन्तु वह परातत्त्व ऐसा नहीं है, इन सबसे परिच्छिन्न न होने से इसका कथन नहीं हो सकता। इसका अनुभव तो पूर्णाहन्ता का विकास होने पर अपने भीतर अपने आप प्रकाशित हो रहे आनन्द के रूप में होता है। इसका यह स्वरूप सभी प्रकार की कल्पनाओं से, नाम, रूप, क्षणिकता आदि उपाधियों से रहित होने से निर्विकल्प एवं वास्तविक है। उसका दूसरा काई विकल्प ही नहीं है जिनसे इसकी उपमा दी जा सके। पूर्णस्वरूप बोधभैरव की यह अवस्था सारे विश्व में अहमाकार में सर्वत्र व्याप्त है। वस्तुतः यही विमल अर्थात् स्वात्मभित्ति में आभासित हो रहे जगत् के दोषों से असंयुक्त रहकर विश्व का पूरक अर्थात् सारे जगत् का प्रकाशक, निष्कल (निराकार) स्वरूप उस परावस्था को प्रकट करता है। इससे भिन्न इसकी कोई आकृति नहीं मानी जाती। यह विभेद स्वरूप है। जब इसमें भेद उत्पन्न हो जाते हैं तो इसी को सकला (साकार) कहा जाता है।
एवंविधे परे तत्त्वे कः पूज्यः कश्च तृप्यति ||१६||
व्याख्या- इस प्रकार यह निष्कल परभैरव ही स्वात्मस्वरूप है। इससे भिन्न किसी की भी सत्ता नहीं है। सभी कुछ वही है तो फिर कौन किसकी पूजा करे? यह भैरव ही अद्वैत स्वरूप है जो सर्वत्र वही है, पूजा, आराधना, तर्पण आदि जो भी किया जाता है वह द्वैत भाव से ही किया जाता है। अद्वैत में यह सम्भव नहीं है। अतः अज्ञानी लोग जो विभिन्न कर्मकाण्ड करते रहते हैं वे सब द्वैत भावना से ही किये जाते हैं जो आडम्बर मात्र हैं। जब तक व्यक्ति को इस पर भैरव की अवस्था का अनुभव नहीं हो जाता तभी तक वह व्यर्थ के कर्मकाण्डों को करता रहता है। निष्कल का अनुभव हो जाने पर इनकी कोई आवश्यकता नहीं रहती। यह परभैरव अवस्था ही स्वात्म स्वरूप है तथा वही पूजनीय है, अन्य कोई पूजनीय तत्त्व नहीं है। अन्य सभी उसी की विभिन्न अवस्थाएँ हैं अतः वह परमतत्त्व ही एकमात्र पूजनीय है, अन्य कोई नहीं।
एवंविधा भैरवस्य याऽवस्था परिगीयते । सा परा पररूपेणपरा देवी प्रकीर्तिता ||१७||
व्याख्या-ऊपर भैरव की जो परावस्था बताई गयी है वह भैरव से भिन्न नहीं है। यह उसकी निराकार (निष्कल) अवस्था है। जिस प्रकार वेदान्त ब्रह्म को निर्गुण स्वरूप कहता है तथा ईश्वर को सगुण ब्रह्म कहता है ठीक इसी प्रकार भगवान् शिव सगुण रूप से भैरव है तथा उनका यह निर्गुण निराकार स्वरूप ही परभैरव है। दोनों में कोई भेद नहीं है किन्तु कुछ लोग सगुण व निर्गुण साकार व निराकार में भी भेद करते हैं जबकि वह निराकार ही साकार रूप में अभिव्यक्त होता है। अभिव्यक्ति के पूर्व ही उसे निराकार कहा जाता है। साकार भैरव ही बोधस्वरूप है जबकि उसका निराकार स्वरूप बोध से भी परे है। इसी प्रकार उसकी यह शक्तियाँ उससे भिन्न नहीं हैं अतः उसी को परादेवी अथवा पराशक्ति कहा जाता है।
शक्तिशक्तिमतोर्यद्वदभेदः सर्वदा स्थितः । अतस्तद्धर्मथर्मित्वात् परा शक्तिः परात्मनः ।।१८।।
व्याख्या – भैरव ही वह परमतत्त्व है तथा परावस्था ही उसका स्वरूप है जो देश, काल आदि में परिच्छिन्न नहीं है, न कोई दशा विशेष ही है, तो भैरव को ही भैरवी कहा जायेगा? ऐसी शंका होने पर भैरव कहते हैं कि भैरव की वह परावस्था ही उसका स्वरूप है। यह परावस्था शक्तिरूप है तथा भैरव ही शक्तिमान है। शक्ति शक्तिमान से भिन्न नहीं होती वह उससे अभिन्न ही रहती है। शक्ति सामर्थ्य को कहते हैं। यह सारे जगत् का निर्माण करने वाले भैरव का ही स्वरूप है। शक्ति और शक्तिमान को अभेद माना गया है। यह शक्तिमान भैरव से सदा सम्बद्ध ही रहती है। भैरव के साथ रहने से उसमें भी सर्वज्ञता, सर्वकर्तृता अर्थात् कर्तापन तथा सर्वात्मता आदि धर्म विद्यमान रहते हैं। यह भैरव की धर्मिणी है जो सदा उस चिदानन्द घन भैरव से अभिन्न होने के कारण वही परा (भैरवी) कही जाती है। इसे और स्पष्ट किया जा सकता है कि भैरव चेतनस्वरूप है जो चेतन व आनन्दस्वरूप है इसलिए वही चिदानन्दघन कहा जाता है। अस्तित्व चेतनतत्त्व का है जो जीवन का आधार है। उसके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती किन्तु वह चेतनतत्त्व क्रिया नहीं करता। सारी क्रियाएँ उसकी शक्ति से होती हैं। हो सकता है वह चेतन होते हुए भी कोई क्रिया न करे किन्तु क्रिया उसका स्वभाव है। वह बिना क्रिया के रह ही नहीं सकता। एक मनुष्य में चेतन तो है किन्तु वह क्रिया नहीं करे ऐसा हो सकता है किन्तु वह क्रिया तो करता है किन्तु उसमें चेतनता ही न हो ऐसा नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति में से यदि यह चेतना निकल जाती है तो उसके साथ उसकी क्रिया शक्ति भी साथ ही निकल जाती है फिर वह शरीर कोई क्रिया नहीं कर सकता। एक चेतन प्राणी भाग दौड़ करता है, युद्ध करता है, कोई निर्माण कार्य करता है। खेल-कूद करता है, कृषि करता है आदि सब उसकी शक्ति से करता है किन्तु चेतन के बिना वह कैसे कार्य कर सकता है? अतः स्पष्ट है कि शक्ति का सारा कार्य चेतन के बिना सम्भव ही नहीं है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में जितने कार्य हुए हैं व हो रहे हैं वे सब चेतन की शक्ति से ही हो रहे हैं अतः शक्ति को चेतन से भिन्न नहीं माना जा सकता कि बिना चेतन के शक्ति अपने आप कोई कार्य कर सके। यह शक्ति उस परमचेतना का ही एक रूपमात्र है इसी कारण शिव को अर्द्धनारीश्वर कहा गया है अर्थात् वह चेतन व शक्ति का संयुक्त रूप है। वेदान्त व तन्त्र इसी को मान्यता देता है जो एक वैज्ञानिक सत्य है। केवल सांख्य दर्शन ही प्रकृति व पुरुष, जड़ व चेतन को दो भिन्न तत्त्व मानता है जो उसकी अपनी सोच है। यह सारी सृष्टि उस चेतन की शक्ति का ही विलास है। सारी सृष्टि आज विज्ञान इस चेतनशक्ति से अनभिज्ञ होने से वह केवल इस जड़शक्ति को ही मान्यता दे रहा है कि वही सब कुछ है किन्तु वह भूल जाता है कि वनस्पति, जीव जन्तु, पशु-पक्षी व मनुष्य आदि में जो भी क्रियाएँ हो रही हैं वे सब इसी चेतनशक्ति से हो रही है।
चेतन के बिना इनकी सब क्रियाएँ बन्द हो जाती हैं जिनको विज्ञान भौतिक शक्तियाँ कहता है उनका भी मूलस्वरूप चेतन ही है। विज्ञान अभी इस रहस्य को नहीं जान पाया है। हो सकता है आने वाले समय में उसे इसका ज्ञान हो जाये। केनोपनिषद् में एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है कि वायु तथा अग्नि में भी जो उड़ाने व जलाने की शक्ति कार्य कर रही है वह भी चेतन के बिना निष्क्रिय हो जाती है। अतः यह श्लोक पूर्ण रूप से विज्ञान सम्मत है कि शक्ति को शक्तिमान से अलग नहीं किया जा सकता। बिना शक्तिमान के शक्ति किस आधार पर टिकी रह सकती है? अतः चेतनस्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
वेदान्त जिसे ब्रह्म कहता है वह जड़ व चेतनशक्ति का संयुक्त रूप है जिसमें जड़तत्त्व अनभिव्यक्त अवस्था में रहता है तथा चेतन तत्त्व शान्तावस्था में रहता है जिसमें कोई हलचल नहीं होती। तन्त्र इसी अवस्था को भगवान् भैरव की परा अवस्था कहता है तथा उसी की शक्ति उससे अभिन्न रूप में इसी परा अवस्था में रहती है जिसे पराभैरवी कहा गया है। यही परमतत्त्व है जो साकार रूप धारण करने पर वेदान्त में ईश्वर नाम से सम्बोधित किया जाता है जो चेतन तत्त्व है तथा उसी की मायाशक्ति उस चैतन्य का आवरण बन जाती है जिससे वह चैतन्य दृश्य नहीं हो सकता इसी प्रकार तन्त्र का परभैरव ही भैरव रूप बन जाता है जो चेतन भैरव व शक्ति भैरवी से सम्पन्न रहता है जो इसकी परापरा अर्थात् परा+अपरा अवस्था है। वही शक्ति अपरा अवस्था में सृष्टि की रचना करती है। वेदान्त इसी को मायाशक्ति की रचना कहता है तथा सांख्य इसी को प्रकृति की रचना कहता है तीनों शास्त्रों में केवल कथन की ही भिन्नता है अन्यथा तीनों एक ही तथ्य को प्रकट करते हैं।
न वह्नेर्दाहिका शक्तिर्व्यतिरिक्ता विभाव्यते । केवलं ज्ञानसत्तायां प्रारम्भोऽयं प्रवेशने ॥१९॥
व्याख्या – भगवान् भैरव का जो परस्वरूप है वह उसी की पराशक्ति से सम्पन्न है। वह परस्वरूप चैतन्य है जो ज्ञानस्वरूप अथवा बोधस्वरूप है। वह तत्त्व अति सूक्ष्म होने से किसी भी प्रकार से दृश्य नहीं है। वह स्वयं कोई क्रिया नहीं करता किन्तु क्रिया का माध्यम उसकी शक्ति है जो सभी प्रकार की क्रिया का कारण है। यह सम्पूर्ण दृश्यजगत् उसी की शक्ति का विलास है। भैरव अर्थात् शिव का अस्तित्व ही शक्ति के कारण है। बिना शक्ति के शिव भी शव रूप ही है। शिव को सीधा नहीं जाना जा सकता। शक्ति की सहायता से ही शिव की पहचान होती है। जिस प्रकार अग्नि की पहचान उसकी दाहिका शक्ति (जलाने की शक्ति) से होती है। यदि उसमें जलाने की शक्ति ही नहीं है तो उसे अग्नि कैसे कहा जा सकता है? जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहशक्ति भिन्न नहीं है, जिस प्रकार सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नहीं है जिस प्रकार चन्द्रमा से उसकी चाँदनी भिन्न नहीं है, जिस प्रकार चीनी से उसका मिठास भिन्न नहीं है उसी प्रकार शिव से उसकी शक्ति भिन्न नहीं है। शक्ति के बिना अकेला शिव सृष्टि की रचना नहीं कर सकता तथा अकेली शक्ति भी बिना चेतन (शिव) के सृष्टि की रचना नहीं कर सकती। अतः यह शक्ति उसका उपकरण है जिसकी सहायता से वह सृष्टि रचना करता है। जिस प्रकार एक इंजीनियर बिना ईंट, चूने, पत्थर, सीमेन्ट के भवन का निर्माण नहीं कर सकता दोनों का ही होना आवश्यक है इसी प्रकार शिव व शक्ति दोनों की उपस्थिति से ही सृष्टि रचना सम्भव है किन्तु इसमें मुख्य भूमिका शक्ति की ही है। यह शक्ति ही शिव के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का माध्यम है। उस परभैरव का ज्ञान उसकी शक्ति के माध्यम से ही हो सकता। अतः यह शक्ति उसमें प्रवेश करने का माध्यम है। जहाँ चेतना है वहाँ शक्ति विद्यमान रहती ही है तथा जहाँ शक्ति है वहाँ चेतना है ही। दोनों अभिन्न हैं जिससे दोनों की उपस्थिति ही सृष्टि रचना का कारण बनती है। अकेला तत्त्व शक्तिहीन है। शक्ति से ही शक्तिमान की पहचान होती है इसलिए अधिकांश साधक शक्ति की ही पूजा आराधना करते हैं। जिस प्रकार मनुष्य में चेतना विद्यमान है तभी तक वह अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकता है तथा चेतना के निकल जाने पर यह शरीर शक्तिहीन हो जाता है। आज विज्ञान केवल शक्ति पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए है तथा इस चेतनतत्त्व से अनभिज्ञ है जिससे विज्ञान के अपेक्षित परिणाम नहीं आ रहे हैं। चेतन का ज्ञान ही अध्यात्म का विषय है। इसके बिना विज्ञान अधूरा है। अधूरा ज्ञान कभी जीवन का आधार नहीं बन सकता। ईशावास्य उपनिषद् में कहा है “जो असम्भूति की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति में रत हैं वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।”
(सूत्र १२)
यह सारी सृष्टि शक्ति का ही रूप है किन्तु इसको जानने वाला तथा इसका उपयोग करने वाला तो वह चेतन जीव ही है शक्ति व चेतना को अलग नहीं किया जा सकता। अतः शक्ति की उपासना से ही शिव की उपासना हो जाती है दोनों की अलग-अलग उपासना नहीं करनी पड़ती। वेदान्त की मायाशक्ति फिर भी उस चैतन्य से भिन्न मानी गयी है जो उस चैतन्य का आवरण बनजाती है जिससे वह चैतन्य प्रत्यक्ष नहीं होता किन्तु तन्त्र इसे उस चैतन्य ईश्वर का तिरोधान कार्य मानता है उससे भिन्न तत्त्व नहीं मानता।
ईशावास्य उपनिषद् के सूत्र (१४) में कहा गया है “””जो असम्भूति और कार्य ब्रह्म इन दोनों को साथ-साथ जानता है वह कार्य ब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा अमरत्त्व प्राप्त कर लेता है। ” अतः दोनों की ही उपासना का एक ही फल होता है। वेदान्त की माया भी ईश्वर के साथ रहने वाली है।
शक्त्यवस्था प्रविष्टस्य निर्विभागेन भावना तदासौ शिवरूपी स्यात् शैवी मुखमिहोच्यते ।।२०।।
व्याख्या- भगवान् भैरव का जो साकार स्वरूप है वही उसकी शक्ति का स्वरूप है। जो दृश्य है जिसका ज्ञान अज्ञानीजनों को होता है तथा चैतन्यस्वरूप शिव का ज्ञान उसे न होने से वह शिव व शक्ति दोनों को भिन्न मानकर शक्ति की ही उपासना करता है, उसी के माध्यम से वह शिवतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है। इसके लिये कई उपाय बताये गये हैं जिनके द्वारा जब वह जीव पराशक्ति स्वरूप अवस्था में पहुँच जाता है तभी उसे शिवतत्त्व की अनुभूति होती है इससे पूर्व वह दोनों में भेद ही मानता रहता है कि शिव और शक्ति दो भिन्न तत्त्व हैं किन्तु जब वह पराशक्ति तक पहुँच जाता है तभी वह शक्ति शिव के साथ एकाकार हो जाती है तथा उसी अवस्था में इन दोनों का भेद मिट जाता है, दोनों एकाकार हो जाते हैं। इससे पूर्व उसे शिवतत्त्व का ज्ञान नहीं होता। जब दोनों में भेद दृष्टि समाप्त हो जाती है तभी वह अपने को शिवस्वरूप ही समझने लग जाता है। इससे पूर्व वह शिव से भिन्न अपने को जीव ही मानता रहता है। अतः तन्त्र शास्त्रों का कहना है कि शिव की यह शैवी शक्ति ही शिव के उस परम सुन्दर चैतन्य स्वरूप में प्रवेश पाने का द्वार है। उस चैतन्य स्वरूप शिव को सीधा प्राप्त नहीं किया जा सकता अतः शाक्त मत में शक्ति की ही उपासना पर बल दिया गया है। इसका एक उदाहरण यह है कि जिस प्रकार किसी व्यक्ति की पहचान उसका मुँह देखने से ही होती है उसी प्रकार शक्ति के परास्वरूप को जानकर ही उसके माध्यम से ही शिव को पहचाना जाता है तथा उसी अवस्था में शिव व शक्ति का भेद मिट जाता है। तभी जीव शिवत्व रूप हो जाता है। शक्ति के बिना शिव के नाम, रूप, स्थान, आदि की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वामकेश्वर तन्त्र में कहा गया है “शक्त्या बिना शिवे सूक्ष्मे नाम धाम न विद्यते।” इसी स्थिति में शक्ति शिव में विलीन हो जाती है तभी साधक को शिव-शक्ति की अभिन्नता ज्ञात होती है। इसी अवस्था को बोध दशा कहा जाता है, यही उसकी भैरवदशा है जो विज्ञान स्वरूप है। वेदान्त इसी अवस्था को प्राप्त होने पर ही वह जीव ‘अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करता है जो गुरु के तत्त्वमसि उपदेश से ही प्राप्त होती है। इससे पूर्व अपने को ब्रह्म कहने का कोई औचित्य नहीं है। शैव उपासक इसी को शिवोऽहम्ं कहते हैं।
यथाऽऽलोकेन दीपस्य किरणैर्भास्करस्य चे ज्ञायते दिग्विभागादि तद्वच्छक्त्या शिवः प्रिये ॥२१॥
व्याख्या – इस श्लोक में शिव और शक्ति की अभिन्नता का एक और उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है कि हे प्रिये! जिस प्रकार सूर्य से उसकी किरण भिन्न नहीं है तथा दीपक से उसका प्रकाश भिन्न नहीं है उसी प्रकार शिव से उसकी शक्ति भिन्न नहीं है यह उसी का प्रकाश है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही सभी दिशाओं का ज्ञान होता है तभी सभी वस्तुएँ देखी जाती हैं उसी प्रकार शक्ति की सहायता से ही शिव की पहचान होती है तथा इस जागतिक प्रपंच का ज्ञान भी शक्ति की ही सहायता से होता है। जिस प्रकार दीपक को देखने के किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती तथा सूर्य को देखने के लिए किसी दूसरे सूर्य की आवश्यकता नहीं रहती किन्तु अपनी ही लौ और अपनी ही किरणों से ये भासित होते हैं उसी प्रकार इसी शक्ति की ही सहायता से शिव के स्वरूप की पहचान हो जाती है कि इस शक्ति का स्रोत यही शिव है तथा यही निज का स्वरूप है। मनुष्य में जो आत्मा है वही चैतन्य स्वरूप है तथा यह शरीर उसी की शक्ति का रूप है। उस चैतन्य स्वरूप आत्मा को शक्ति रूपी शरीर के माध्यम से ही जाना जाता है। यदि शरीर ही न हो तो उस आत्मा को जानने का और कोई माध्यम नहीं रहता। इस सम्पूर्ण सृष्टि के ज्ञान का कारण केवल आत्मचेतना ही है किन्तु उसका ज्ञान तो शरीर के ही माध्यम से होता है। अतः शक्ति ही उस शिव को जानने का एकमात्र उपकरण है।
यहाँ प्रश्न पैदा होता है कि यह शक्ति तो जड़ है, इसका स्रोत क्या है? यह किसकी शक्ति है? यदि शक्ति है तो वह शक्तिमान् कौन है जिसकी यह शक्ति है? वह शक्तिमान् तो चैतन्य स्वरूप ही हो सकता क्योंकि शक्ति अपने आप बिना चैतन्य के सृष्टि रचना अपने बल बूते पर नहीं कर सकती। इस परमतत्त्व को चैतन्य स्वरूप मानकर ही इसको जानने की जिज्ञासा से ही अध्यात्म विद्या का विकास हुआ। वैज्ञानिकों की भाँति इसे स्वीकार नहीं किया गया कि सब कुछ प्रकृति की ही रचना है जिसमें चैतन्य को कोई स्थान नहीं है। अध्यात्म विद्या सब कुछ चैतन्य की ही रचना मानता है व यह प्रकृति व शक्ति उसका उपकरण मात्र है जिसकी सहायता से वह रचना करता है। कोई भी रचना चैतन्य के बिना सम्भव नहीं है अतः चैतन्य ही वह परमतत्त्व है जिसकी खोज अध्यात्म जगत् में ही हुई है। इसमें सांख्य, वेदान्त व तन्त्र शास्त्र की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि आज का जनसमुदाय इस अध्यात्म ज्ञान की उपेक्षा कर विज्ञान की ओर अधिक आकर्षित हो रहा है। विज्ञान का एकांगी ज्ञान देश का दुर्भाग्य ही बनेगा। वह जीवन में सुख सुविधा तो दे सकता है किन्तु इससे उच्च जीवन नहीं मिल सकता। विज्ञान की चकाचौंध में अध्यात्म की उपेक्षा करना जीवन का अभिशाप ही सिद्ध होगा। जिस प्रकार वृक्ष के बीज में पूरा वृक्ष समाया रहता है उसी प्रकार शिवरूपी चैतन्यतत्त्व में सारी सृष्टि समाहित रहती है। वही बीज जिस प्रकार अपने ही भीतर से पूरा वृक्ष निकाल देता है जिस प्रकार एक ही शुक्राणु अपने भीतर से पूरा शरीर निकाल देता है उसी प्रकार से शिव ही अपने भीतर से पूरी सृष्टि की रचना कर देता है। जिस प्रकार बीज को अंकुरित होने के लिए मिट्टी खाद पानी आदि सहकारी कारणों की आवश्यकता होती है वैसी किसी सहकारी कारण की उसको आवश्यकता नहीं होती। स्वेच्छा से ही उसमें स्पन्दन होने लगता है जिससे वह जगरूप में परिणत हो जाता है। इसी कार्य को तन्त्र में ‘स्फुरता’ कहा तथा वेदान्त इसी को ‘संकल्प’ कहता है कि सृष्टि ईश्वर की संकल्पशक्ति का परिणाम है।
॥ श्री भैरवी उवाच ॥ देवदेव त्रिशूलाङ्क कपालकृतभूषण । दिग्देशकालशून्या च व्यपदेशविवर्जिता ||२२|| याऽवस्था भरिताकारा भैरवस्योपलभ्यते ।
कैरुपायैर्मुखं तस्यै परा देवी कथं भवेत् । यथा सम्यगहं वेद्मि तथा मे ब्रूहि भैरव ||२३|| व्याख्या—यह भैरवी उसी शिव की पराशक्ति है जो अपने अपरास्वरूप से सृष्टि की रचना करती है किन्तु उसका जो परा स्वरूप है जो शिव से अभिन्न है उसका विस्मरण कर चुकी है कि मैं किसी की अर्द्धांगिनी हूँ। वह सृष्टि रचना के कार्य में ही व्यस्त रहने लगी। उसने शिव द्वारा रचित कई तन्त्र ग्रन्थों को पढ़ा तथा भगवान् शिव से भी सुना है किन्तु उनमें भिन्नता होने से उसे संशय हुआ कि सभी ग्रन्थ भिन्न-भिन्न रूप बताते हैं तो वह जानना चाहती है कि इस सबमें आपका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसको लेकर वह भगवान् शिव से कई प्रश्न पूछती है जिससे शिव उन सबको नकारते हुए अपना वास्तविक स्वरूप बताते हैं जिससे उसकी जिज्ञासा बढ़ गई तथा वह अपने ही परस्वरूप को जानने की इच्छा करने लगी जो शिव से अभिन्न है जिससे वह शिवावस्था में प्रवेश कर सके व उससे एकाकार हो जाये। वह उन उपायों को जानना चाहती है। वह पूछती है- हे देवादि देव, सभी देवताओं के स्वामी, हे त्रिशुलांक, इच्छा, ज्ञान और क्रियारूपी तीनों शक्तियों के फलक वाले त्रिशूल को धारण करने वाले, हे कपालकृत भूषण, हे खप्परधारी भैरव, दिशा देश, काल से रहित, नाम रूप से रहित जिसका वर्णन दिक्काल इत्यादि के द्वारा पहले भी किया जा चुका है, वह परादेवी कैसे जानी जाती है और किन उपायों से वह शिवास्थान में प्रवेश का द्वार बन सकती है? उसका दर्शन किन उपायों से किया जा सकता है? इस बात को आप विस्तार से समझाइये। अर्थात् जिन उपायों का सहारा लेकर मैं परादेवी और बोध (विज्ञान) भैरव के स्वरूप को ठीक से समझ सकूँ, उनको आप विस्तार से मुझे बताइये। सार यह है कि यह भैरवी स्वयं भगवान भैरव की ही शक्ति है जो अपनी अपरा प्रकृति द्वारा सृष्टि की रचना तो करती है किन्तु वह अपने स्वामी भैरव की ही सहचरी शक्ति है इससे वह स्वयं अनभिज्ञ है। वह परारूप से भैरव की ही शक्ति है किन्तु अज्ञानवश वह अपने को एक भिन्न शक्ति मान बैठी है। कई शास्त्रों के अध्ययन से उसे इसका अहसास हो गया कि वह भगवान् भैरव का ही रूप है जो उससे अभिन्न है इसको वह प्रत्यक्ष करना चाहती है जिससे उसका संदेह दूर हो जाये। इसके अनुनय विनय को सुनकर भगवान् भैरव ने उसे अपने परमतत्त्व चैतन्य को जानने के लिए ११२ धारणाओं का वर्णन किया जिससे उसके चैतन्यस्वरूप को जाना जा सके। यह चैतन्यतत्त्व अति सूक्ष्म होने से सामान्य रूप से नहीं जाना जा सकता किन्तु भारत ने इसके जानने की अनेक विधियों की खोज की है जिनमें पतंजलि की क्रियायोग की विधि है, हठयोग की विधि है, सांख्ययोग की विधि है तथा अन्य भी कई विधियाँ हैं। बुद्ध ने भी अपनी अलग विधि पर कार्य किया है किन्तु वेदान्त व तन्त्र की विधि ‘अनुपाय’ अथवा अक्रिया की विधि है जिसे ‘सहज योग’ कहा जाता है। इसमें क्रिया को बन्धन स्वरूप माना गया है जिसमें अहंकार बढ़ता है कि ‘मैं कर रहा हूँ। यह अहंकार ही ज्ञान प्राप्ति में बाधा बन जाता है। तन्त्र का मार्ग अक्रिया का अनुपाय का है। यह समर्पण का मार्ग है। जैसा है सब स्वीकार है, कोई शिकायत नहीं, अच्छे-बुरे का भेद नहीं। सीधा मन पर नियन्त्रण करना है। इसके लिए भगवान् भैरव ने भैरवी को ११२ ऐसी ध्यान की विधियाँ बताई जिसका हर व्यक्ति आसानी से प्रयोग करके शिवरूप को प्राप्त हो सकता है। शिव के इसी चैतन्य स्वरूप को जानकर ही जीव इस जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परमानन्द की अवस्था मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। इन विधियों का वर्णन आगे किया जा रहा है।
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