निस्तरङ्गोपदेशानां शतमुक्तं समासतः द्वादशाभ्यधिकं देवि यज्ज्ञात्व । ज्ञानविज्जनः ।।१३६।।
व्याख्या-भैरवी ने भगवान भैरव से कई प्रश्न पूछे जिनका समाधान पाकर उसने फिर पूछा कि वह कौन सी विधि है जिससे उस परमतत्त्व को जाना जा सके। इसके उत्तर में भगवान् भैरव ने उसे प्राप्त करने के लिए धारणा की ११२ विधियों का वर्णन किया और कहा कि हे देवी! इस तरह से मैंने संक्षेप में ११२ निर्विकल्पक धारणाओं का उपदेश किया है ये सभी धारणाएँ साधक के चित्त को निस्तरंग (स्थिर) बना देने वाली हैं जिससे उसकी स्वात्म स्वरूप में प्रतिष्ठा हो जाती है। इन धारणाओं को ठीक से समझ लेने पर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। अर्थात् साक्षात् भैरव बन जाता है। अपना स्वात्म स्वरूप ही चैतन्य है जो भैरव स्वरूप है ये मन की तरंगें ही निरन्तर विषयों की ओर भटकती रहती है। इन तरंगों को धारणाओं की विधियों से रोक देना ही निस्तरंग होना है। इसी से चित्त स्थिर हो जाता है। इसी अवस्था में उस आत्म चैतन्य की स्पष्ट अनुभूति हो जाती है। यही योगी की ज्ञानावस्था है जिसे प्राप्त कर साधक स्वयं भैरव (शिव) स्वरूप हो जाता है। चित्त को निस्तरंग करना ही मुख्य साधना है।
अत्र चैकतमे युक्तो जायते भैरवः स्वयम् । वाचा करोति कर्माणि शापानुग्रहकारकः ।।१३७ ।।
व्याख्या- ऊपर धारणा की जो विधियाँ बताई गई हैं उनमें से किसी एक की भी साधना पूर्ण कर लेने वाला साधक चाहे वह इस जागतिक कार्यों में रम रहा हो बिना किसी विशेष प्रयत्न के केवल ध्यान द्वारा उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है जिससे वह अपने वचन से सब कुछ कर सकता है अर्थात् किसी को शाप या वरदान देने में समर्थ हो सकता है किन्तु इस सिद्धि का यदि वह उपयोग न करे और निरन्तर समाधि में ही लीन रहे तो वह साक्षात् भैरव बन जाता है यह ध्रुव सत्य है।
अजरामरतामेति सोऽणिमादिगुणैर्युतः । योगिनीनां प्रियो देवि सर्वमेलापकाधिपः ।।१३८।।
जीवन्नपि विमुक्तोऽसौ कुर्वन्नपि न लिप्यते । व्याख्या- भगवान् भैरव फिर भैरवी से कहते हैं कि हे देवी! जो इन धारणाओं में से किसी एक का भी अभ्यास पूर्ण कर लेता है वह अजर और अमर हो जाता है उसे न वृद्धावस्था आती है न उसकी मृत्यु ही होती है तथा वह अणिमा, गरिमा आदि सभी सिद्धियों से युक्त हो जाता है। वह सभी योगिनियों का प्रिय तथा सभी मेलापकों का से अधिपति बन जाता है ऐसा योगी जीवन्मुक्त होकर रहता है, उसका सांसारिक विषयों में कोई रस अथवा आसक्ति नहीं होती जिससे वह संसार में सभी कर्मों को करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता। उसके सभी कार्य जल कमलवत् हो जाते हैं। कर्म तभी लिप्त होते हैं जब उनमें आसक्ति हो। आसक्ति रहित कर्म लिप्त नहीं होते जिससे उनके फलों का भोग भी नहीं करना पड़ता। (तन्त्र में साधक को सिद्ध तथा साधिका को योगिनी कहा गया है। इन दोनों साधक व साधिकाओं के समूह को मेलापक कहा जाता है।)
॥ श्री भैरवी उवाच ॥ इदं यदि वपुर्देव परायाश्च महेश्वर ।।१३९ ।। एवमुक्तव्यवस्थायां जप्यते को जपश्च कः । ध्यायते को महादेव पूज्यते कश्च तृप्यति ।।१४०।। हूयते कस्य वा होमो यागक्षेत्रादि किं कथम् ।
व्याख्या— भैरवी ने पूर्व में अपने परादेवी विषयक प्रश्न भगवान भैरव से पूछा था कि उस परास्वरूप को कैसे जाना जाये तो इसके उत्तर में भगवान् भैरव ने उसे जानने के लिये धारणा की ११२ विधियों का वर्णन करके कहा कि इनमें से किसी एक भी धारणा का अभ्यास करने पर साधक स्वयं शिवरूप हो जाता है। इससे उसका द्वैतभाव समाप्त होकर उसकी अद्वैत में प्रतिष्ठा हो जाती है। यही उसका स्वात्म स्वरूप है, इससे भिन्न कुछ भी नहीं है। यह भिन्नता अज्ञान के कारण ही ज्ञात होती है। इस उत्तर को सुनकर भैरवी के मन में यह शंका उठती है कि यदि ऐसा साधक स्वयं शिवरूप ही हो जाता है तो हे देव! हे महेश्वर? आप यह बताइये कि यदि सब कुछ परादेवीय ही है तो कौन किसका जप करे? क्योंकि जप करने वाला तथा जिसका जप किया जाता है दोनों वही है तो फिर जप करना कैसे सम्भव है? जप करने में दो का होना आवश्यक है तभी जप किया जा सकता है। एक होने पर जप कैसे सम्भव है? यदि साधक सर्वमय हो जाता है तो साधक का और पराशक्ति का स्वरूप अभिन्न हो जाता है तो दोनों में भेद न रहने पर ध्यान भी किसका किया जाये? पूजा भी किसकी की जायेगी? कौन किसको तृप्त करेगा? किसके लिए हवन किया जायेगा? याग किसके लिए किया जायेगा? ये कैसे सम्पन्न होगा? जब सभी स्वात्मस्वरूप ही है तो ध्याता और ध्येय पूजा और पूजक, तर्पणापि और तर्पण आदि का भेद ही नहीं रहेगा तो शास्त्रों में इनका जो विधान है उसका क्या होगा? हे महादेव! कृपया बताइये कि इनकी फिर उपयोगिता ही क्या है? ये क्षेत्र निवास, तीर्थाटन आदि सभी व्यर्थ हो जाएँगे। अद्वय दृष्टि से तो उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं रहेगी?
॥ श्री भैरव उवाच ॥ एषाऽत्र प्रक्रिया बाह्या स्थूलेष्वेव मृगेक्षणे ।। १४१।।
व्याख्या – भैरवी द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर में भगवान् भैरव ने कहा कि हे मृगनयनी! ये सब पूजा पाठ, जप, तप, ध्यान, होम, यज्ञ, याग, तीर्थाटन आदि कर्मकाण्डों का विधान उन स्थूल शरीरधारी व्यक्तियों के लिये है जिनको आत्मानुभूति नहीं हुई है जो आत्मज्ञानी है जो अद्वैत में ही रिक्त हो गये हैं जिनको उस परमतत्त्व का ज्ञान हो गया है जिनको ईश्वर व जीव में अभेद की प्रतीति हो गयी है। उनके लिए इन कर्मकाण्डों की आवश्यकता नहीं है वे सब इनसे मुक्त ही हैं। यदि वे करें तो भी कोई दोष नहीं है किन्तु ऐसा करने से वे फिर वासना में ग्रस्त हो सकते हैं इसलिए न करना ही अच्छा है। उनके लिये इनकी कोई उपयागिता नहीं है। जिस प्रकार नदी पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है किन्तु पार हो जाने पर उसे छोड़ ही देना चाहिये फिर उसे सिर पर ढोते रहने का क्या औचित्य है? इसी प्रकार ये कर्मकाण्ड भी साधन रूप हैं। जब साध्य की प्राप्ति हो गयी है तो इनको ढोते रहने का क्या औचित्य रह जाता है?
भूयोभूयः परे भावे भावना भाव्यते हि या । जपः सोऽत्र स्वयं नादो मन्त्रात्मा जप्य ईदृशः ।।१४२ ।।
व्याख्या-तन्त्र ग्रन्थों में जप के कई रूप बताये गये हैं। “मैं ही इस जगत् का परमकारण, परमहंस, प्राणमय शिव हूँ।” इस प्रकार मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही शिव हूँ इस अनाहतनाद रूपी शब्द (सोऽहम्, हंसः) की निरन्तर भावना को ही यहाँ जप कहा जाता है। जपनीय मन्त्र भी स्वयं नादात्मन् ब्रह्म ही है। जप का यह भी स्वरूप बताया गया है कि इन्द्रियों की बहिर्मुख प्रवृत्ति को रोककर आन्तर अनाहत नाद की भावना करना ही जप कहलाता है।” नाना वर्णों से निर्मित मन्त्रों का बाह्य उच्चारण वस्तुतः जप नहीं कहलाता।
ध्यानं हि निश्चला बुद्धिर्निराकारा निराश्रया । न तु ध्यानं शरीराक्षिमुखहस्तादिकल्पना ||१४३।।
व्याख्या-तन्त्र शास्त्र में जप के बाद ध्यान का स्वरूप इस प्रकार बताया गया है कि बुद्धि को निश्चल कर दे कि वह किसी विषय की ओर भटके नहीं, स्थिर हो जाये जिस प्रकार वायुरहित स्थान पर दीपक स्थिर हो जाता है तथा वह निराकार हो जाये, भिन्न भिन्न आकारों की कल्पना से शून्य हो जाये। जैसे किसी मूर्ति आदि को लेकर ईश्वर के विषय में उसके रूप, रंग, आकार आदि की कल्पना करना आदि तथा वह निराधार हो जाये निराश्रय हो जाये अर्थात् मूलाधार, हृदय, द्वादशान्त आदि का सहारा न ले ऐसी बुद्धि होने पर उसी को ध्यान कहा जाता है। इस प्रकार बुद्धि जब बिना किसी आश्रय के स्थिर हो जाती है ऐसी समाधि जैसी अवस्था को ही ध्यान कहा जाता है किन्तु स्थूल बुद्धि वाले अज्ञानीजन किसी वस्तु को आश्रय बनाकर उसमें बुद्धि को स्थिर करते है है। इसे धारणा कह सकते हैं। ध्यान इससे परे की स्थिति है जिसमें किसी वस्तु को आधार नहीं बनाया जाता न कोई चेष्टा ही होती है। निश्चेष्ट स्थिति। ध्यान नहीं
पूजा नाम न पुष्पाद्यैर्या मतिः क्रियते दृढा । निर्विकल्पे परे व्योम्नि सा पूजा ह्यादराल्लयः ।।१४४ ।।
व्याख्या-धर्म ग्रन्थों में पूजा की कई विधियाँ बताई गयी हैं जिनमें धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजा करने का विधान है किन्तु तन्त्र शास्त्र इससेउच्च कोटि की पूजा की बात कहता है। इसके अनुसार इस प्रकार की पूजा का कोई औचित्य नहीं है। उस बोधभैरव की पूजा इन बाह्य उपकरणों से नहीं की जा सकती। वह बोधभैरव निराकार स्वरूप है जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। उससे भिन्न किसी की भी सत्ता नहीं है उसी भैरव स्वरूप में दृढ़ आस्था रखना ही उसकी वास्तविक पूजा है। अतः इन धारणाओं में से किसी भी एक धारणा का अभ्यास कर अपने स्वरूप को उसमें लीन कर देना ही परमार्थ में पूजा है। अन्य सभी तन्त्र ग्रन्थों में भी इसी प्रकार की पूजा की बात कही गयी है। यह बाह्य उपकरणों की पूजा निराकार की नहीं हो सकती। जब तक अपने स्वत्त्व को उसमें लीन नहीं कर दिया जाता तब तक उसकी पूजा पूर्ण नहीं होती।
अत्रैकतमयुक्तिस्थे योत्पद्येत दिनाद्दिनम् । भारिताकारता सात्र तृप्तिरत्यन्तपूर्णता ||१४५।।
व्याख्या – इस श्लोक में तृप्ति का स्वरूप बताया गया है कि मनुष्य किन उपायों से तृप्ति का अनुभव करता है। ये सभी सांसारिक विषय मनुष्य को कभी पूर्ण तृप्ति नहीं दे सकते। भगवान् भैरव ने इस ग्रन्थ में जिन ११२ धारणाओं की बात कही है उनमें से किसी एक का भी निरन्तर अभ्यास करते रहने से साधक निर्विकल्प अवस्था में जब पहुँच जाता है तभी उसको पूर्ण तृप्ति का अनुभव होता है। इसके सिवा अन्य कोई भी विषय उसको तृप्त नहीं कर सकते। यह द्वैत भाव कभी जीव को तृप्त नहीं कर सकता। जब जीव स्वयं ईश्वर स्वरूप हो जाता है तो यही अद्वैत अवस्था ही जीव को पूर्ण तृप्ति दे सकती है। यही जीव की पूर्णता है। अपूर्णता ही सभी दुःखों का कारण है।
महाशून्यलये वही भूताक्षविषयादिकम् हूयते मनसा सार्धं स होमश्चेतनास्रुचा ।। १४६।।
व्याख्या—इस श्लोक में होम के विषय में कहा गया है कि यज्ञीय होम में घृत आदि की आहुति स्रुवा नाम के लकड़ी के बने पात्र से ही दी जाती है। उसी तरह से उस बोधभैरव रूप अग्नि में पंचमहाभूत, सभी इन्द्रियगण, अनेक विषय तथा मन के साथ इन सब की आहुति दे देना ही वास्तविक होम या हवि कहा जाता है। इस प्रकार इन सभी का उस एक ही बोधभैरव में लीन हो जाता है जिससे केवल वही स्वात्म स्वरूप बच रहता है। यही वास्तविक होम है। जिससे शुद्ध अद्वय तत्त्व के अतिरिक्त अन्य सभी उसमें भस्म हो जाते हैं। यही अद्वैत का स्वरूप है जिससे सभी द्वैत की समाप्ति हो जाती है। भिन्नता की प्रतीति जो भ्रमवश हो रही थी वह समाप्त होकर अद्वैत ही शेष रह जाता है। यहीं वास्तविक होम है।
यागोऽत्र परमेशानि तुष्टिरानन्दलक्षणा । क्षपणात् सर्वपापानां त्राणात् सर्वस्य पार्वति ।।१४७।। रुद्रशक्तिसमावेशस्तत्क्षेत्रं भावना परा।
अन्यथा तस्य तत्त्वस्य का पूजा कश्च तृप्यति ।।१४८।। व्याख्या – भगवान् भैरव यहाँ कहते हैं कि हे परमेश्वरी! ये जप, ध्यान, पूजा, तर्पण, होम, याग, क्षेत्र आदि के विषय में जो तुमने पूछा है वे सब द्वैतभाव में सम्भव है। अद्वैत की अवस्था में जब जान लिया गया कि सब कुछ वही है दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं तो इन सबका कोई औचित्य ही नहीं है। ये अज्ञानीजन जिनको बोध नहीं हुआ है वे ही इस प्रकार की क्रिया करते रहते हैं। समाधि अवस्था में जब साधक आनन्दमय स्थिति में चला जाता है तो वहीं जाकर वह तृप्ति का अनुभव करता है। इसी अवस्था को देवयजन कहा जाता है। इसी से हे पार्वती! इसी भावना से शिव और शक्ति की तन्मयता प्राप्त होती है। इसी से अज्ञानियों के सभी पापों का क्षय हो जाता है और इस संसाररूपी महाभय से त्राण पा सकता है। हे देवी! यह परमतत्त्व परमार्थ में एक ही है, अद्वय है। ऊपर जो विधि बतायी गयी है उसी पद्धति से उसे सम्पन्न करना चाहिये। अन्य कोई विधि नहीं हैं।
स्वतन्त्रानन्दचिन्मात्रसारः स्वात्मा हि सर्वतः । आवेशनं तत्स्वरूपे स्वात्मनः स्नानमीरितम् ।।१४९।।
व्याख्या-जल के स्नान से मात्र शरीर की शुद्धि होती है वह मन को शुद्ध नहीं कर सकता। मन की शुद्धि के बिना जीव का शुद्धिकरण नहीं होता। जीव की शुद्धि तभी होती है जब इस जीव चेतना का उस परम चेतना में लीन कर दिया जाए। यही सर्वोत्तम स्नान है जिससे यह जीव चेतना पवित्र हो जाती है। अन्य किसी विधि से इसे पवित्र नहीं किया जा सकता। जिन धारणाओं का यहाँ वर्णन किया गया है उनमें से किसी भी एक धारणा के अभ्यास से उस अद्वय स्वरूप आत्मा का उस एक ही चेतन स्वरूप में समाविष्ट हो जाने को ही उत्तम स्नान माना गया है। यह स्वात्मा स्वतन्त्र आनन्दस्वरूप व चेतन मात्र है। इसी को प्राप्त करना ही परमगति है।
यैरेव पूज्यते द्रव्यैस्तर्प्यते वा परापरः । यश्चैव पूजकः सर्वः स एवैकः क्व पूजनम् ।। १५०।।
व्याख्या – जो उस परमतत्त्व को जान गया जिसे भैरव की अनुभूति हो गयी जो अद्वैत में प्रविष्ट हो गया जिसे सृष्टि में सर्वत्र एकत्त्व की अनुभूति हो गयी वह सभी को चेतन स्वरूप ही मान लेता है। उसकी सभी भेद दृष्टि ही समाप्त हो जाती है। वह शिव व शक्ति की अभिन्नता में प्रवेश कर गया। उसके लिए पूजा, पूजन सामग्री तथा पूजक में कोई भेद ही नहीं रह जाता फिर कोई किसकी पूजा करे तथा किस सामग्री से पूजा करे यह सब व्यर्थ हो जाता है क्योंकि सभी उस एक तत्त्व के विभिन्न रूप ही तो है ये सब क्रियाएँ उन अज्ञानियों के लिए है जो शिव व शक्ति को भिन्न मानते हैं जो जीव और शिव को भिन्न मानते हैं जो सृष्टि व सृष्टा में भेद करते हैं। जब साधक को अद्वैत का बोध हो जाता है तो वह उसकी कोई उपयोगिता नहीं समझता।
व्रजेत् प्राणो विशेज्जीव इच्छया कुटिलाकृतिः दीर्घात्मा सा महादेवी परक्षेत्रं परापरा ।।१५१||
व्याख्या – शरीर में प्राण और अपान की गति निरन्तर बनी रहती है। हृदय से बाहर की ओर जाने वाली श्वास को प्राण कहा जाता है तथा बाहर से भीतर आने वाला श्वास को अपान कहा जाता है। प्राण के निकल जाने पर मृत्यु होती है तथा अपान के आने से जीवन मिलता है इसलिए इस अपान को ही जीव कहा गया है जब अपना अपानवायु भीतर प्रवेश करती है तो ‘ह’ की ध्वनि होती है तथा श्वास छोड़ते समय ‘स’ की ध्वनि होती है इस प्रकार ह और स का उच्चारण निरन्तर होता रहता है जिसे ‘हंस’ गायत्री कहते हैं। अपान से ही बोध होता है कि शरीर में जीवात्मा विद्यमान है। अपान के प्रवेश न करने पर शरीर शव हो ताता है। जब तक शरीर जीवित है तब तक अपान और प्राण का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है किन्तु यह कब तक चलता रहेगा तथा यह क्रम कब टूट जायेगा इसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार हकार में ह की आकृति टेढ़ी मेढ़ी होती है उसी प्रकार यह जीव भी अपनी इच्छा से ही कुटिल (घुमावदार) आकृति धारण कर लेता है। यह वक्रता परमेश्वर की स्वतन्त्र इच्छाशक्ति के कारण होती है यह वक्रता प्राणों में आती है जीव में नहीं। यह जीव प्राणशक्ति के भीतर सूक्ष्मरूप में रहता है प्राण और अपान की समानता के कारण ही जीव को हंस कहा जाता है अर्थात हंस की भाँति उसमें नीर क्षीर का विवेक प्राप्त होता है। हृदय रूपी आकाश में रहने वाली यह संवित् शक्ति ही इन सबको उत्पन्न करने वाली है। इसी को परादेवी कहा गया है। यही दीर्घात्मा तथा परापरा उसी का स्वरूप है यही श्रेष्ठ तीर्थभूमि है। हंस मन्त्र को इसी कारण अजपा गायत्री कहा जाता है। जिसका निरन्तर जप चलता रहता है।
अस्यामनुचरंस्तिष्ठन् महानन्दमयेऽध्वरे । तया देव्या समाविष्टः परं भैरवमाप्नुयात् ।। १५२||
व्याख्या- इस हृदयरूपी भूमि में जहाँ सकार और हकार का सम्मिलन होता है अर्थात् प्राण और अपान का मिलन होता है उससे जो आनन्द उत्पन्न होता है वह महानन्द के नाम से प्रसिद्ध है। इस महानन्द का अनुष्ठान करने से ही साधक को वह (शिव) मैं ही हूँ इस प्रकार का ज्ञान हो जाता है। इसी विचार में निमग्न रहने वाला साधक उस परभैरव के उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त कर लेता है उसमें समाविष्ट हो जाता है जिससे जीव व शिव का भेद ही मिट जाता है दोनों एक रूप हो जाते हैं।
सकारण बहिर्याति हकारेण विशेत् पुनः । हंस-हंसेत्यमु मन्त्रं जीवो जपति नित्यशः ॥१५३।। षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः । जपो देव्याः समुद्दिष्टः प्राणस्यान्ते सुदुर्लभः ।। १५४।।
व्याख्या – यह प्राण सकार के साथ बाहर निकलता है तथा हकार के साथ यह अपान पुनः शरीर में प्रवेश करता है अर्थात् जब प्राण शरीर से बाहर निकलता है तो स की आवाज होती है और अपान जब भीतर प्रवेश करता है तो ह की आवाज होती है इस प्रकार प्राण और अपान की गति जब तक चलती रहती है अर्थात जब तक श्वास प्रश्वास चलता रहता है तब तक जीव निरन्तर हंस-हंस इस मन्त्र का उच्चारण करता रहता है। इस मन्त्र का चौबीस घंटे में २१,६०० बार जप पूरा हो जाता है। जब प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं और अपान के पुनः शरीर में प्रवेश न करने पर यह जप बन्द हो जाता है। मृत्यु के समय भी यदि इस जप के साथ साधक की तन्मयता बनी रहे तो इसे अनेक जन्मों के अर्जित पुण्य कर्मों का फल ही कहना चाहिये अन्यथा सामान्यतया यह तन्मयता नहीं रह पाती।
इत्येतत् कथितं देवि परमामृतमुत्तमम् । एतच्च नैव कस्यापि प्रकाश्यं तु कदाचन ॥१५५|| परशिष्ये खले क्रूरे चाभक्ते गुरुपादयोः ।
व्याख्या-तन्त्र की सारभूत शिक्षाओं का समापन करते हुए भगवान् भैरव भैरवी द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों का उत्तर देने के बाद कहते हैं कि हे देवी! इस प्रकार मैंने तुमको इस उत्तम परम अमृतमय पद (मोक्ष) को प्राप्त कराने वाले शास्त्र का उपदेश दिया है। इस शास्त्र का उपदेश किसी अनधिकारी व्यक्ति को प्राण का संकट उपस्थित होने पर भी नहीं करना चाहिये। अन्य सम्प्रदाय में दीक्षित, कपटी ओर क्रूर व्यक्ति को तथा गुरु के चरणों में श्रद्धा न रखने वाले शिष्य को कभी भी इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। अनधिकारी को उपदेश देने से वह इसके रहस्यों को न समझकर इसका दुरुपयोग ही करेगा जिससे उसके स्वयं का तथा समाज का अहित भी कर सकता है। उच्च ज्ञान सामान्य व्यक्ति को देने का इसी कारण निषेध किया जाता रहा है।
निर्विकल्पमतीनां तु वीराणामुन्नतात्मनाम् ।। १५६।। भक्तानां गुरुवर्यस्य दातव्यं निर्विशङ्कया।
व्याख्या – मनुष्य का मन कई प्रकार के संकल्प विकल्प में घूमता रहता है। उसके मन में किसी एक के प्रति दृढ़ आस्था नहीं होती। धर्म, सम्प्रदाय, साधना आदि के कई ग्रन्थों को पढ़ने के बाद भी वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सकता कि कौन सा मार्ग ग्राह्य है व कौन सा अग्राह्य है? कौन सा साध्य है और कौन सा असाध्य है? ऐसे कई विकल्पों के रहते उसकी मति किसी भी एक मत या विधि में दृढ़ नहीं हो पाती। ऐसा व्यक्ति कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु जिसकी बुद्धि निर्विकल्प हो चुकी है जिसका निश्चय दृढ़ हो चुका है तथा जिसकी किसी मुख्य विषय में आस्था जम चुकी है जिसको उसमें श्रद्धा है। जिसमें उसको कोई संदेह नहीं है जो शुद्ध विद्या को ग्रहण करने की पात्रता वाला है तथा जो गुरु की सेवा में श्रद्धापूर्वक लगा हो ऐसे शिष्यों के सामने ही ऐसे रहस्यमय ज्ञान को बिना शंका के प्रकाशित करना चाहिये। जो इस ज्ञान के प्रचार प्रसार में योगदान करने का इच्छुक हो उसे भी दिया जा सकता है इसके मर्म व मन्तव्य को समझने की योग्यता वाला ही इसका सपात्र है।
ग्रामं राज्यं पुरंदेशं पुत्रदारकुटुम्बकम् ||१५७।। सर्वमेतत् परित्यज्य ग्राह्यमेतन्मृगेक्षणे । ।। किमेभिरस्थिरैर्देवि स्थिरं परमिदं धनम् ।। १५८ प्राणा अपि प्रदातव्या न देयं परमामृतम् ।
व्याख्या- भगवान् भैरव भैरवी पार्वती से कहते हैं कि हे मृगनयनी! इस ज्ञान को ग्रहण करने के लिये ग्राम, राज्य, नगर, देश, पुत्र, स्त्री, कुटुम्ब आदि सबको छोड़ना पड़े तो भी उन्हें छोड़कर इस रहस्यमय, अत्यन्त गुप्त, परम उत्कृष्ट ज्ञान को ग्रहण करना चाहिये क्योंकि हे देवी! ग्राम, राज्य आदि सभी तो अस्थिर हैं, ये मनुष्य के साथ सदा रहने वाले नहीं हैं। इन अस्थिर पदार्थों को रखकर क्या करेंगे? हमें तो इस स्थिर धन, अक्षय ज्ञान का ही संग्रह करना चाहिये जो सभी प्रकार की विपत्तियों को दूर करने वाला है सभी प्रकार के उपाय करके भी हमें इसी अक्षयनिधि का ही संग्रह करना चाहिये जो हमें परम सुख व अक्षय शान्ति प्रदान करने वाला है जो जीवन का सार तत्त्व है उसका त्याग कर असार को ग्रहण करने में कौन सी बुद्धिमानी है? इस अमृतमय ज्ञान को प्राप्त कर इसे अयोग्य व्यक्ति को कभी नहीं देना चाहिये। यह गुप्त ज्ञान है जो गुरु शिष्य परम्परानुसार किसी योग्य शिष्य को ही देना चाहिये जो इस परम्परा का उचित निर्वाह कर सके।
॥ श्री भैरवी उवाच ॥ देवदेव महादेव परितृप्तास्मि शङ्कर ||१५९।। रुद्रयामलतन्त्रस्य सारमद्यावधारितम् । सर्वशक्तिप्रभेदानां हृदयं ज्ञातमद्य च ॥ १६०।।इत्युक्त्वाऽऽनन्दितादेवी कण्ठे लग्ना शिवस्य तु ।।१६१।।
व्याख्या – भगवान् शिव द्वारा उपदिष्ट ज्ञान को सुनकर भैरवी शक्ति पार्वती अत्यन्त संतुष्ट होकर भगवान् शिव के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहने लगी कि हे देवों के देव, देवताओं के स्वामी महादेव भगवान शंकर सबका कल्याण करने वाले! मैं आपके इस अत्यन्त गुप्त रहस्यमय ज्ञान को सुनकर परम सन्तुष्ट हूँ। आज मैंने रुद्रयामल तन्त्र के गूढ़ रहस्य को समझ लिया है। साथ ही मैंने शक्ति तत्त्व के पर, अपर तथा परापर आदि भेदों के गुप्त रहस्य को भी जान लिया है। इतना कहने पर अपने सभी प्रकार के सन्देहों के निवृत्त हो जाने पर परम आनन्द में लीन, भाव विभोर होकर भगवती पार्वती शिव में लीन हो गई शिव के साथ मिलकर एकाकार हो गयी। शिव व शक्ति की जो भेद की प्रतीति थी वह समाप्त होकर अद्वय रूप में प्रतिष्ठित हो गयी।
विज्ञान भैरव is truly a profound exploration into the realms of consciousness. As a fellow seeker, I appreciate the wisdom shared in your post. Let’s continue this enlightening journey together!