(धारणा-१) ॥श्री भैरव उवाच ॥
भैरवी स्वयं भगवान् शिव की शक्ति है जो स्वयं शिव से अभिन्न होते हुए भी वह शिव के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है। वह उस स्वरूप को जानने के लिए आठ प्रश्न पूछती है कि इन सबमें आपका वास्तविक स्वरूप क्या है? यह बताइये। भगवान् शिव इन सभी को नकारते हुए उसे अपने वास्तविक स्वरूप का वर्णन करते हैं तो भैरवी उन उपायों को जानना चाहती है जिससे वह शिवावस्था में प्रवेश करके उनसे एकाकार जाये। वह शिव से अभिन्न होते हुए भी अपने परास्वरूप को न जान पाने के कारण अपने को उनसे भिन्न अनुभव करती है। वह अपनी अपराप्रकृति से सृष्टि की रचना तो करती है किन्तु अपनी ही पराप्रकृति से अनभिज्ञ है जो शिव से भिन्न नहीं है। भगवान् शिव उसे इसका बोध कराने के लिए ११२ धारणाओं का उपदेश करते हैं जिससे वह शिव के साथ एकाकार हो सके। भगवान् भैरव उसे कहते हैं_
ऊर्ध्वे प्राणो ह्यथो जीवो विसर्गात्मा परोच्चरेत् ।उत्पत्तिद्वितयस्थाने भरणााद् भरिता स्थितिः ।। २४ ।।
व्याख्या- सृष्टि का परमतत्त्व चैतन्य है। वेदान्त उसे ईश्वर कहता है, सांख्य दर्शन उसे पुरुष कहता है तथा तन्त्र शास्त्र उसे शिव कहता है। यह सृष्टि उसी चैतन्य तत्त्व की शक्ति है जिसे वेदान्त मायाशक्ति कहता है, सांख्य इसी को प्रकृति कहता है तथा तन्त्र शास्त्र इसे भैरवी कहता है तथा शिव को भैरव भी कहा गया है। यह भैरवी शक्ति अपनी परावस्था में शिव से अभिन्न रहती है, एकाकार रहती है किन्तु अपनी अपरावस्था में यही सृष्टि की रचना करती है। शरीरों में यही शक्ति प्राणों के रूप में सभी जीवधारियों में विद्यमान रहकर उन्हें जीवन प्रदान करती है। प्राणों की इसी शक्ति से सभी जीवधारी प्राणी जीवन प्राप्त करते हैं तथा प्राणों के निकल जाने पर वे मृत घोषित कर दिये जाते हैं। अतः जीवन का आधार यही प्राण शक्ति है। यह प्राणशक्ति चेतनतत्त्व शिव की ही शक्ति है किन्तु चेतनतत्त्व केवल ज्ञानस्वरूप है। वह क्रिया नहीं करता। सभी क्रियाएँ उसकी शक्ति से ही होती हैं।
शरीर में यही प्राण शक्ति श्वास प्रश्वास के रूप में कार्य करती है। योग शास्त्रों में इसी को रेचक पूरक व कुम्भक कहा जाता है। इस श्लोक में कहा गया है कि श्वासप्रश्वास की यह क्रिया इस परादेवी का ही स्पन्दन है। यह क्रिया हृदय से आरम्भ होकर ऊपर द्वादशान्त तक अर्थात् नासिका से बाहर निकलकर बारह अंगुल दूर तक जाती है तो इसे प्राण कहा जाता है तथा द्वादशान्त से भीतर हृदय तक आने वाले श्वास को जीव नामक अपान कहा जाता है। यह परादेवी निरन्तर इसका स्पन्दन करती रहती है। यह परादेवी विसर्ग स्वभाव वाली है। यही आन्तर व बाह्य भावों की सृष्टि करती है। शरीर में अथवा सृष्टि में जो भी स्पन्दन है, हलचल है वह सब इसी शक्ति के कारण है तथा जहाँ कोई स्पन्दन नहीं है कोई हलचल नहीं है ऐसी शान्त अवस्था ही चैतन्यस्वरूप शिव का स्थान है। जब प्राणतत्त्व बाहर निकलता है और अपान का आरम्भ नहीं होता है तो इन दोनों के बीच में थोड़ा सा अवकाश रहता है। यही शिव का स्थान है जहाँ काई हलचल नहीं होती। इस पर ध्यान को केन्द्रित करने पर यह अवकाश लम्बा हो जाता है और इसी में उस चैतन्यस्वरूप शिव की अनुभूति होती है। इसी प्रकार जब हृदय में अपान वायु का अन्त होकर प्राण वायु का उदय होने के मध्य जो अवकाश है उसका ध्यान करने से योगी की भैरवस्वरूप शिव की अभिव्यक्ति हो जाती है। प्राणवृत्ति का अन्दर आना व बाहर जाना इसका स्वाभाविक कार्य है जो इस पराशक्ति का ही स्पन्दन है। द्वादशान्त तथा हृदय में ध्यान करने से सभी तरह की उपाधियों का विस्मरण हो जाता है तथा मैं ही भैरव हूँ इस प्रकार की अनुभूति हो जाती है यही शून्य स्थान है।
( धारणा- २ ) मरुतोऽन्तर्वहिर्वाऽपि विययुग्मानि वर्तनात् । भैरव्या भैरवस्येत्थं भैरवि व्यज्यते वपुः ||२५||
व्याख्या – इस श्लोक में भगवान् भैरव इस मध्य स्थिति का वर्णन करते हुए भैरवी से कहते हैं कि हे भैरवी! इस प्राण और अपान का आधारभूत स्थान आन्तर आकाश हृदय तथ्य बाह्य आकाश द्वादशान्त इन दोनों स्थानों से यह पवन पुनः लौटता है। इसके पुनः लौटने से पूर्व एक क्षण के लिए वह रुकता है। इस स्थिति को द्वादशान्त कहा जाता है। इस समय उसकी वृत्ति अन्तर्मुख हो जाती है। उस समय ऐसा अनुभव होता है कि प्राण और अपान कहीं विलीन हो गये हैं। इस स्थिति को योग शास्त्रों में ‘कुम्भक’ कहा गया है तथा तन्त्र इसे मध्यदशा कहते हैं। यह मध्यदशा एक क्षण के लिए ही होती है किन्तु अभ्यास द्वारा जब इस स्थिति का विकास किया जाता है तो भगवान् भैरव का स्वरूप प्रकाशित हो जाता है जो पराशक्ति भैरवी से अभिन्न रूप से विद्यमान रहते हैं। धर्म और धर्मी जिस प्रकार अभिन्न है उसी प्रकार शिव और उसकी शक्ति अथवा भैरव और भैरवी अभिन्न है। इसको अलग नहीं किया जा सकता। वे परमार्थ रूप में एक ही है किन्तु इनमें भेद ज्ञात होता है। जब प्राण और अपान दोनों का चलना न हो तभी इस ‘मध्य दशा’ का अनुभव किया जा सकता है। योग शास्त्र के अनुसार हृदय स्थित कमल कोश से प्राण का उदय होकर नासिका मार्ग से निकलकर बारह अंगुल चलकर अन्त में आकाश में विलीन हो जाता है। प्राण की इस बाह्य गति को ‘रेचक’ कहा जाता है तथा इस बाह्य आकाश से अपान का उदय होता है तथा नासिका मार्ग से चलकर यह हृदय स्थित कमलकोश में विलीन हो जाता है। अपान की इस स्वाभाविक आन्तर गति को पूरक कहा जाता है। जब द्वादशान्त में तथा अपान वायु हृदय में क्षणभर के लिए रुक जाती है उसे योग शास्त्रों में ‘कुम्भक’ कहा जाता है। यह कुम्भक अवस्था दो तरह की होती है- बाह्य कुम्भक तथा आन्तर कुम्भक । जब यह श्वास चलते-चलते मध्य में ही किसी कारण से रुक जाती है तो उसे ‘मध्य कुम्भक’ कहते हैं। इन सभी रेचक, कुम्भक तथा पूरक अवस्थाओं का निरन्तर ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते रहने से योगी जीवन-मृत्यु से मुक्त हो जाता है। पातंजल योग दर्शन में प्राणायाम की विधियाँ बताई गयी हैं किन्तु उसमें कहा गया है कि आसन की सिद्धि होने पर श्वास प्रश्वास की गति का रुक जाना ही प्राणायाम है। यह अपने आप होता है। हठयोग में विभिन्न प्रकार के प्राणायामों का वर्णन है। योगवाशिष्ठ में भी प्राणों के निरोध के उपाय बताये गये हैं। इस प्रकार प्राणों का निरोध होने पर ही ईश्वरानूभूति होती है किन्तु तन्त्र की विधि सहज योग की विधि है जिससे प्राणों की गति को रोकना नहीं है बल्कि जो स्वाभाविक रूप से चल रही है उसे देखते रहना मात्र है। इसी से प्राणों का स्पन्दन रुक जाता है व साधक ध्यान में प्रवेश कर जाता है। इस ध्यान की स्थिति में ही साधक को शिवानुभूति हो जाती है।
(धारणा-३) न व्रजेन्न विशेच्छक्तिर्मरुद्रूपा विकासिते । निर्विकल्पतया मध्ये तया भैरवरूपता ||२६||
व्याख्या—भैरवीशक्ति के कारण शरीर में प्राण व अपान की क्रिया निरन्तर चलती रहती है किन्तु प्राण के लीन होने व अपान के उदय होने के मध्य थोड़े समय के लिए यह प्राण रुकता है जिसे मध्य दशा कहते हैं। इसी प्रकार अपान के हृदय में लीन होने व प्राणों के उदय होने के मध्य यह अपान थोड़े समय रुकता है जिसे आन्तर मध्य दशा कहते हैं। यही वे स्थान है जहाँ शक्ति का कोई स्पन्दन नहीं होता। इस शान्त अवस्था में ही भैरवस्वरूप चेतनशक्ति का अनुभव होता है। यह मध्य दशा आरम्भ में थोड़े समय के लिए ही होती है एक क्षण के लिए; किन्तु योगाभ्यास द्वारा इसे बढ़ाया जा सकता है। जब यह मध्य दशा इतनी बढ़ जाती है कि वायुरूप यह प्राणात्मक और अपानात्मक शक्ति न तो हृदय से द्वादशान्त तक जाती है और न द्वादशान्त से हृदय तक वापस लौटती है तो इस अवस्था में पहुँचा योगी बाह्य पदार्थों को तथा आन्तरिक भावों को अर्थात् समस्त विकल्पों को ध्यानरूपी अग्नि में भस्म कर देता है। वह अपने समस्त इन्द्रियसमूह को आलम्बन के अभाव में अपने स्वरूप में विस्तीर्ण कर देता है। उस समय ऐसी प्रतीति होती है जैसे ये इन्द्रियाँ अपने अद्भुत स्वरूप को आँखें फाड़कर देख रही हों। यह उसकी निर्विकल्प अवस्था है जिसमें प्रवेश करने पर साधक स्वयं भैरव स्वरूप हो जाता है अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का उसे ज्ञान हो जाता है। इस समय प्राण और अपान का स्पन्दन बहुत कम हो जाता है। यही समाधि दशा है।
( धारणा – ४) कुम्भिता रेचिता वापि पूरिता वा यदा भवेत् । तदन्ते शान्तनामासी शक्त्या शान्तः प्रकाशते ॥२७॥
व्याख्या—भगवान शिव की यह शक्ति शरीर में श्वास-प्रश्वास के रूप में सदा चलती रहती है जिसे ‘रेचक’ व ‘पूरक’ कहा जाता है। रेचक में यह हृदयकमल से बाहर की ओर चलती रहती है जिसे प्राण कहा गया है। यह प्राण थोड़े समय बाहर रुककर फिर भीतर की ओर चलने लगता है जिसे अपान कहा गया है। प्राण के लीन होने और अपान के उदय होने के मध्य जो थोड़ा सा समय लगता है उसे मध्य दशा कहा गया है। योगशास्त्र में इसी को कुम्भक कहते हैं। इस दशा को बाह्य कुम्भक कहा जाता है। इसी प्रकार हृदय कमल में जब अपान लीन होता है तथा प्राण का उदय होता है उसके बीच में जो मध्य दशा होती है उसे आन्तर कुम्भक कहा जाता है। योगाभ्यास द्वारा इन दोनों प्रकार के कुम्भकों के समय को बढ़ाया जाता है। इस अवस्था में प्राण व अपान की गति नहीं होती। इस शान्त अवस्था में ही शक्ति का कोई कार्य नहीं रहता जिससे वह शान्त अवस्था में विलीन हो जाती है जिससे चैतन्य व शक्ति का भेद ही मिट जाता है। दोनों एक हो जाते हैं। इसी अवस्था में एक प्रकाश मात्र अवस्था का उदय हो जाता है। जिसका कोई नाम, रूप आदि नहीं होता। वही स्वात्म स्वरूप है जिसका ज्ञान हो जाता है। जब तक वह शक्ति प्राण और अपान के रूप में सक्रिय रहती है तब तक उस चेतनतत्त्व का ज्ञान नहीं होता। जब सभी विचार बन्द हो जाते हैं तो उस शान्त अवस्था को ही समाधि कहा जाता है। यही शून्यता की स्थिति है इसी में आत्मानुभव होता है।
( धारणा- ५ ) आमूलात् किरणभासां सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरात्मिकाम् । चिन्तयेत् तां द्विषट्कान्ते शाम्यन्तीं भैरवोदयः ॥ २८॥
व्याख्या—यह शक्ति हृदय से चलकर द्वादशान्त तक चलने में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है। इसी प्रकार यह मूलाधार से चलकर सहस्रार तक जाते-जाते सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है जो सूर्य एवं चन्द्रमा की किरणों के समान प्रकाशित है जिस प्रकार यह प्राण द्वादशान्त में जाकर शान्त हो जाता है उसी प्रकार सहस्रार में जाकर यह उस चैतन्य स्वरूप में विलीन हो जाता है। इस स्थिति का चिन्तन करते रहने से योगी को उस चैतन्य भैरव का ज्ञान हो जाने पर वह स्वयं भैरव (शिव) स्वरूप हो जाता है कि में ही भैरव हूँ।
(धारणा-६) उद्गच्छन्तीं तडिद्रूपां प्रतिचक्रं क्रमात्क्रमम् । ऊर्ध्वं मुष्टित्रयं यावत् तावदन्ते महोदयः ॥२९॥
व्याख्या-यह शक्ति विद्युत स्वरूप है जो बिजली के समान चमकने वाली है। यह शक्ति मूलाधार से चलकर सुषुम्ना मार्ग से चलती हुई षटचक्रों का भेदन करती हुई ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचती है इसका इसी प्रकार चिन्तन करे कि यह शक्ति ऊपर की ओर उठ रही है। इस प्रकार का चिन्तन करने से यह शक्ति द्वादशान्त से ऊपर उठकर परम चैतन्यस्वरूप महाभैरव को प्राप्त हो जाती है, उसका स्वरूप प्रकाशित हो जाता है।
(धारणा-७) क्रमद्वादशकं सम्यग् द्वादशाक्षरभेदितम् ।स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या मुक्त्वा मुक्त्वाऽन्ततः शिवः ।।३०।।
व्याख्या-शरीर में बारह चक्र माने गये हैं जो बारह स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये बारह स्थान हैं— जन्माग्र, मूल, कन्द, नाभि, हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य, ललाट, ब्रह्मरन्ध्र, शक्ति तथा व्यापिनी ये क्रमशः एक दूसरे से ऊर्ध्व स्थान में स्थित है। इन चक्रों व स्थानों और स्वरूप को समझकर उनमें अकार से लेकर विसर्ग तक बारह स्वरों का ध्यान करना चाहिए। वैसे स्वर सोलह हैं। कहा जाता है स्वर सोलह, व्यंजन छत्तीस किन्तु इन सोलह में ऋ ॠ, लू, लृ को नपुंसक कहा जाता है जिनका कहीं उपयोग ही नहीं होता। अतः इनको छोड़ने पर अ से लेकर अः तक स्वरों की संख्या बारह ही होती है। ध्यान में इन नपुंसक स्वरों का उपयोग नहीं किया जाता। अतः ध्यान करते समय इन बारह चक्रों में इन बारह स्वरों का ध्यान करना चाहिए। ध्यान में योगी स्थूल वस्तु का त्याग करते हुए सूक्ष्म की और बढ़ता जाता है तथा अन्त में सूक्ष्म का भी त्याग कर पर अवस्था में प्रविष्ट हो जाता है, जो ज्योतिर्मय है। इसमें प्रवेश करने के बाद वह स्वयं स्वात्मस्वरूप ही हो जाता है अर्थात् स्वयं शिवरूप ही हो जाता है।
( धारणा-८) तयाऽऽपूर्याशु मूर्धान्तं भङ्क्त्वा भ्रूक्षेपसेतुना ।निर्विकल्पं मनः कृत्वा सर्वोर्ध्वं सर्वगोद्गमः ।।३१।।
व्याख्या-पूर्व में बताये गये इन बारह स्थानों का ध्यान करते रहने से यह प्राणशक्ति क्रमशः ऊर्ध्व गमन करती रहती है। निरन्तर अभ्यास से यह शक्ति क्रमशः सभी चक्रों का भेदन करती हुई भूमध्य में स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है किन्तु भूमध्य में जाकर यह रुक जाती है। यहाँ तक पहुँचने की अवस्था सविकल्प अवस्था है जिसमें शिव और शक्ति का भेद बना रहता है। भूमध्य में पहुँचने पर वह वहीं पर रुक जाती है। उसे आगे ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाने के लिए गुरु की सहायता की आवश्यकता होती है। गुरु द्वारा दिये गये उपदेश से ही वह इस सेतु को पार कर आगे ब्रह्मरन्ध्र तक जा सकती है। जिससे मन को निर्विकल्प, निश्चल, स्थिर अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है। जब योगी इस अवस्था में पहुँच जाता है तो उसमें सर्वव्यापकता का उद्गम हो जाता है अर्थात् उसमें भेद की प्रतीति समाप्त होकर सभी में वह अपना ही स्वरूप देखने लग जाता है कि सब कुछ मेरा ही स्वरूप है अथवा सब कुछ मैं ही हूँ। मेरे से भिन्न किसी की सत्ता नहीं है। यही उसकी परभैरव की अवस्था है। यही अद्वैत की अवस्था है। इससे पूर्व शिव व शक्ति, जड़ व चेतन, जीव व ईश्वर का बना रहता है जो अज्ञान की अवस्था है। ज्ञान होने पर द्वैत भाव ही समाप्त हो जाता है।
( धारणा-९) शिखि पक्षैश्चित्ररूपैर्मण्डलैः शून्यपञ्चकम् ।ध्यायतोऽनुत्तरे शून्ये प्रवेशो हृदये भवेत् ||३२||
व्याख्या – जिस प्रकार मयूर के पंखों में चित्र विचित्र चन्द्रकों में पाँच शून्य दिखाई देते हैं। जिनकी स्थिति ऊपर, नीचे, मध्य तथा दोनों पार्श्वों में होती है उसी प्रकार योगी को पाँचों इन्द्रियों द्वारा जो पाँच प्रकार का ज्ञान है वह पाँच विषयों का है। ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध ही ये पाँच विषय हैं जिनको ये पाँचों इन्द्रियाँ ग्रहण करती हैं। इन विषयों को योगी यदि वास्तविक न समझकर शून्य स्वरूप मान लेता है कि ये मन की कल्पना मात्र है तो योगी शून्यरूप परम आकाश में प्रवेश कर जाता है। उसका अभिप्राय यह है कि योगी को यह चित्र विचित्र जगत् नाना प्रकार के रूप व रंगों से इन्द्रियों के द्वारा जैसा भासित हो रहा है वह वास्तव में यह आभास शून्यस्वरूप है जो मात्र मन की कल्पना से भासित हो रहा है वास्तव में ऐसा है नहीं। यह मन की ही एक वृत्ति है जो संसार को जैसा देखना चाहे उसे वैसा ही दिखाई देने लगता है। किसी को वह स्वर्ग से भी सुन्दर दिखाई देता है तो कबीर को झाड़ और झाँकर ही दिखाई दिया। वे कहते हैं “यह संसार झाड़ और झाँकर उलझि उलझि मरि जाना है।” फिर कहते हैं- “यह संसार कागज की पुड़िया बूँद पड़े गलि जाना है।” एक को यह सुख भोग का साधन दिखाई देता है तो बुद्ध व महावीर को यह दुःखरूप ही दिखाई दिया। यह सब मन की कल्पना है। मन कभी सत्य को नहीं जान सकता। यह सब मन की कल्पना का व्यापार है। ऐसी कल्पना करने पर ही परमार्थ की प्राप्ति हो जाती है वह परमाकाश में लीन हो जाता है। यही उसकी मोक्ष की अवस्था है जिससे वह मृत्यु के पार हो जाता है।
( धारणा – १०) ईदृशेन क्रमेणैव यत्र कुत्रापि चिन्तना । शून्ये कुडये परे पात्रे स्वयंलीना वरप्रदा ||३३||
व्याख्या – जिस प्रकार पूर्व में गुदाधार जन्म कन्द, नाभि, हृदय, कण्ठ, तालु, भूमध्य ललाट, ब्रह्मरन्ध्र शक्ति और व्यापिनी में ध्यान करने को कहा गया था कि इनमें सीढ़ियों की भाँति क्रमशः एक-एक को छोड़ते व दूसरे को पकड़ते हुए क्रम से ध्यान करना चाहिए उसी क्रम से अपने शरीर के सिवाय दूसरे के शरीर में भी इसी प्रकार ध्यान करना चाहिए अथवा अन्यत्र भी जैसे आकाश, दीवार, कोई पात्र अथवा परपात्र में इसी चिन्तन की प्रक्रिया में आरोहण की पद्धति से दृढ़तापूर्वक अभ्यास करने से साधक की स्मृति स्वयं विलीन होकर वरदात्री बन जाती है अर्थात् परम प्रकाश के उदय के रूप में उत्कृष्ट वस्तु देने वाली बन जाती है। यही धारणा उस परम तत्त्व तक पहुँचने की सीढ़ी बन जाती है। यह ध्यान साधना आरम्भ में स्थूल वस्तु से आरम्भ की जाती है तथा क्रम से सूक्ष्म से करते हुए बढ़ते जाना चाहिए अन्त में वह स्वयं शिवरूप हो जाता है। जब वह स्वयं को शिवरूप अर्थात् चैतन्यस्वरूप मानने लग जाता है तो उसे यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी चैतन्यरूप शिव से अभिन्न ज्ञात होने लगती है जिससे शिव और शक्ति की भिन्नता का भाव ही समाप्त हो जाता है तथा सृष्टि को अपना ही स्वरूप मानने लग जाता है। यह अद्वैत की अनुभूति ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने से ही जीवन को सफल माना जा सकता है। सभी भ्रम मिट जाते हैं।
(धारणा- ११) कपालान्तर्मनो न्यस्य तिष्ठन्मीलितलोचनः । क्रमेण मनसो दायल्लक्षयेल्लक्ष्यमुत्तमम् ।।३४।।
व्याख्या-कपाल के भीतर विद्यमान एक छिद्र में एक स्वयं प्रकाश प्रभाकर ज्योति विद्यमान है। उस ज्योति कर आलम्बन लेकर इसमें अपने मन को स्थिर करे। इसी में धारणा, ध्यान में समाधि का अभ्यास करे। आँख मूँदकर इस क्रिया को निरन्तर करता रहे जिससे योगी के मन में दृढ़ता का संचार होता है जिससे वह उस उत्तम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। पातंजल योग दर्शन के सूत्र ३/३२ में इसका वर्णन है कि इस कपाल ज्योति में संयम करने से सिद्ध महात्माओं के दर्शन होते हैं। (ये सिद्ध महात्मा कौन हैं? क्या करते हैं? तथा संसार के प्राणियों की किस प्रकार सहायता करते हैं? इसका विस्तृत वर्णन श्री दशोरा ने अपने पातंजल योग सूत्र में विस्तार से किया है।) यह ज्योति ही शिव व शक्ति स्वरूप है जिसका योगी प्रत्यक्ष दर्शन करता है जिससे उसकी भेद दृष्टि समाप्त हो जाती है तथा वह दूसरों को अपने से अभेद स्वरूप मानने लग जाता है।
( धारणा – १२) मध्यनाड़ी मध्यसंस्था विससूत्राभरूपया । ध्याताऽन्तर्व्योमया देव्या तया देवः प्रकाशते ॥३५॥
व्याख्या-मनुष्य के शरीर में नाड़ियों का एक ऐसा जाल है जिनमें होकर शरीर की यह प्राणऊर्जा शरीर के विभिन्न अंगों को पहुँचती है जिससे ये अंग सक्रिय रहते हैं। जब इस ऊर्जा प्रवाह में कमी आती है अथवा रुकावट आती है तो उससे सम्बन्धित अंग कार्य करना बन्द कर देते हैं जो उसकी बीमारी का कारण बनते हैं। यह ऊर्जा आत्मा की ही ऊर्जा है जिसका मुख्य केन्द्र नाभि है यहीं से मनुष्य को जीवन मिलता है। इन नाड़ियों का जाल विभिन्न शक्ति केन्द्रों तथा उपकेन्द्रों द्वारा फैला हुआ है। नाभि के बाद मुख्य केन्द्र हैं जिनको हठयोग में षट्चक्र कहा गया है। ये शक्ति के बड़े केन्द्र हैं। इसके बाद लगभग सात सौ छोटे-छोटे केन्द्र हैं जिनसे यह ऊर्जा प्रवाहित होती है। एक्यूप्रेशर व एक्यूपंक्चर की चिकित्सा पद्धति इन्हीं केन्द्रों के उपचार पर आधारित है। (यह वर्णन नन्दलाल दशोरा के पातंजल योग सूत्र विभूति पाद के सूत्र ३१ में कूर्मनाड़ी के सन्दर्भ में किया है।) इस प्रकार पतंजलि ने विभिन्न नाड़ियों में संयम करने से विभिन्न सिद्धियों के प्राप्त होने की बात कही है। (योग दर्शन-विभूतिपाद) इस श्लोक में सुषुम्ना नाम वाली मध्य नाड़ी में संयम करने के विषय में कहा गया है कि नाड़ी यह हृदय के मध्य में रहती है। यह कमल नाल में विद्यमान अत्यन्त सूक्ष्म तन्तुओं के समान कृश आकार वाली है। इस नाड़ी में संयम करने से साधक के हृदय में प्रकाशात्मक भगवान शिव प्रकाशित हो जाते हैं। इस नाड़ी में चिदाकाशरूप शून्य का निवास है जिससे प्राण शक्ति निकलती है। इस शक्ति की सहायता से शिव स्वरूप प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है। इसमें ध्यान करने से परभैरव प्रकाशित हो जाते हैं। यही अपना वास्तविक स्वरूप है जिससे कई सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं। इन सिद्धियों के चक्कर में नहीं पड़ने पर वह शिवस्वरूप ही हो जाता है।
( धारणा-१३) कररुद्धदृगस्त्रेण भूमेदाद् द्वाररोधनात् । दृष्टे बिन्दौ क्रमाल्लीने तन्मध्ये परमा स्थितिः ॥३६।।
व्याख्या-पूर्व में बताया गया है कि यह प्राण शक्ति ध्यान क्रिया से भूमध्य तक तो पहुँच जाती है किन्तु वहाँ एक ऐसी ग्रन्थि है जो इसे रोक देती है। इस ग्रन्थि से प्राण शक्ति को ऊपर उठाने के लिए योग अपने इन्द्रिय रूपी हथियारों को ही काम में लेता है। इसमें योगी अपनी उँगलियों व अंगूठे से आँख, कान आदि द्वारों को रोक देता है जिससे यह प्राण शक्ति बाहर न निकल सके। इस क्रिया से योगी को भ्रूमध्य में प्रकाश बिन्दु का दर्शन होने लगता है। इस बिन्दु में मन को एकाग्र करने से वह बिन्दु विलीन हो जाता है तथा बोध स्वरूप प्रकाश अवस्था में उसकी स्थिति हो जाती है अर्थात् उसका पर भैरवस्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है।
( धारणा-१४) धामान्तः क्षोभसंभूतसूक्ष्माग्नितिलकाकृतिम् । बिन्दुं शिखान्ते हृदये लयान्ते ध्यायतो लयः ।। ३७।।
व्याख्या – पूर्व श्लोक के अनुसार जब नेत्र को जोर से दबाया जाता है तो उसमें सूक्ष्म अग्नि कणों जैसी आकृतियाँ चमक उठती हैं। ये आकृतियाँ आँखों के तेज से निकली किरणें ही हैं। उनमें से किसी एक बिन्दु को पकड़कर ऊर्ध्व द्वादशान्त अथवा हृदय में उसका ध्यान करना चाहिए। इस प्रक्रिया में दीपक को भी लिया जा सकता है। दीपक जब बुझने लगता है तो चटकने के साथ उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। इनमें से भी किसी एक बिन्दु को पकड़कर भी ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है। इसकी सहायता से योगी के सब जागतिक विकल्प शान्त हो जाते हैं अर्थात् यह अनुभव हो जाता है कि यह सारा प्रपंच मुझसे भिन्न नहीं है। इस अवस्था में योगी उस परम तेज में विलीन हो जाता है।
( धारणा-१५) अनाहते पात्रकर्णेऽभग्नशब्दे सरिद्रुते । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परंब्रह्माधिगच्छति ॥ ३८॥
व्याख्या—संसार में जो भी ध्वनि सुनाई देती है वह दो वस्तुओं के टकराने से ही पैदा होती है जिसे आहत ध्वनि कहते हैं किन्तु एक ध्वनि ऐसी भी है जो अनाहत है अर्थात् बिना किसी वस्तु के टकराने से ही अपने आप पैदा होती है। इस ध्वनि को योगी लोग गहन ध्यान की अवस्था में सुनते हैं। यह एक ऐसी ध्वनि है जो निरन्तर शरीर के भीतर चलती रहती है। इस ध्वनि को कानों से नहीं सुना जा सकता। कानों से तो बाहर की आहत ध्वनि ही सुनी जा सकती है किन्तु गहरे ध्यान की अवस्था में जब बाहर की ध्वनि सुनाई देना बन्द हो जाता है तो इस भीतर की ध्वनि को सुना जा सकता है। जिस प्रकार नदी का जल निरन्तर चलता रहता है इसी प्रकार शरीर के भीतर दश प्रकार का यह अनाहत नाद निरन्तर दिन-रात स्वाभाविक रूप से बिना रुकावट के चलता रहता है। इस ध्वनि को सुनने के लिए भी इन श्रवणेन्द्रियों को ही पात्र अर्थात् समर्थ बनाया जाता है किन्तु इस ध्वनि को सुनने के लिए गहरे ध्यान में प्रवेश करना होता है यह नाद ही शब्दब्रह्म का रूप है। यह दस प्रकार का होता है जो आहत नाद से सर्वथा भिन्न प्रकार का होता है। इस नाद में धारणा, ध्यान, समाधि का अभ्यास करने से योगी शब्दब्रह्म के स्वरूप को भली भांति समझ लेता है। शब्दब्रह्म के स्वरूप को समझ लेने पर साधक अनायास ही परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। आज वैज्ञानिक इसकी भिन्न व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह आकाश गंगा व इसके चारों ओर जो सूर्य आदि तीव्र गति से चक्कर लगा रहे हैं उन्हीं के कारण यह सूक्ष्म ध्वनि उत्पन्न होती है वही भीतर सुनाई देती है।
( धारणा – १६ ) प्रणवादिसमुच्चारात् प्लुतान्ते शून्यभावनात् । शून्यया परया शक्त्या शून्यतामेति भैरवि ॥ ३९॥
व्याख्या – इस सृष्टि का मूलतत्त्व एक ही है जो चैतन्य स्वरूप है जिसे ब्रह्म, ईश्वर, परमात्मा आत्मा आदि नाम दे दिये गये हैं किन्त वह निराकार स्वरूप है जिसका न तो कोई आकार है न उसका कोई रूप, रंग आदि है जिससे उसका कोई नाम हो ही नहीं सकता। पतंजलि ने अपने योग दर्शन (१/२७) में कहा है “तस्य वाचकः प्रणवः” अर्थात् उस ईश्वर का यदि कोई नाम हो सकता है तो वह प्रणव अर्थात् ओंकार ही है। यह ओंकार (ॐ) भी कोई अक्षर नहीं बल्कि एक ध्वनि है जो योगी को समाधि अवस्था में सुनाई देती है। इससे भिन्न योगी को किसी ईश्वर के दर्शन नहीं होते अतः इसी ओंकार को ही ईश्वर का वास्तविक नाम दिया गया है। इस ओंकार के भी कई रूप हैं अथवा भेद हैं जैसे ॐकार वेद का प्रणव है तन्त्र में इसी को हूं कार अथवा ॐही कार आदि कहा जाता है। इसका उच्चारण भी ह्रस्व दीर्घ तथा प्लुत भेद से तीन प्रकार का होता है पहले धीमा, फिर तेज और बाद में अधिक तेज उस प्लुत स्वर के बाद साधक उसमें शून्य की भावना करे। इस शून्य की भावना से साधक पराशक्ति में प्रविष्ट हो जाता है। भगवान् शिव कहते हैं कि हे भैरवी! यह शून्यता ही पराशक्ति का बोध कराती है।
( धारणा-१७) यस्य कस्यापि वर्णस्य पूर्वान्तावनुभावयेत् । शून्यया शून्यभूतोऽसौ शून्याकारः पुमान् भवेत् ।।४०।।
व्याख्या – केवल प्रणव का ही नहीं अपितु वर्णमाला में विद्यमान जिस किसी के भी वर्ण की पूर्व और अपर अवस्था का अर्थात् उच्चारण करने की इच्छा तथा उसकी विराम अवस्था का शून्य से अनुगत रूप से ध्यान करे अर्थात् इन दोनों स्थितियों में वर्ण शून्य स्वभाव ही है इस तरह की भावना करने से साधक शून्यशक्ति के माध्यम से शून्यस्वरूप, शून्याकार होकर शून्य में विलीन हो जाता है। इस अवस्था में यह सारा जगत् शून्यरूप ही दिखाई देने लगता है तथा वह इसे गन्धर्व नगर के समान मिथ्या समझने लगता है तथा इससे ऊपर वह परब्रह्म ही समझने लगता है।
( धारणा -१८) तन्त्र्यादिवाद्यशब्देषु दीर्घेषु क्रमसंस्थितेः । अनन्यचेताः प्रत्यन्ते परव्योमवपुर्भवेत् ॥४१॥
व्याख्या – तन्तु वाद्य आदि विभिन्न वाद्य यन्त्रों से आरोह अवरोह के साथ जो ध्वनि निकलती है वह अपनी क्रमिकता के आधार पर दीर्घकाल तक कानों में गूंजती रहती है उसी में अपने चित्त की वृत्ति को डाल देता है तो उसी से चित्त की एकाग्रता परमाकाश स्वरूप हो जाती है अर्थात् इन वाद्यों से पैदा हुए स्वरों में लय, सम, ताल आदि से मन लगाकर एकाग्रतापूर्वक अभ्यास कर उसके साथ अपनी चित्त वृत्ति को लीन कर देने वाला साधक परम व्योमशरीर हो जाता है अर्थात् परब्रह्म दशा में समाविष्ट हो जाता है। अतः संगीत शास्त्र में प्रवीण व्यक्ति अनायास ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
( धारणा १९ ) पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूलवर्णक्रमेण तु । अर्धेन्दुबिन्दुनादान्त शून्योच्चाराद् भवेच्छिवः ॥४२॥
व्याख्या–प्रणव आदि पिण्ड मन्त्र कहलाते हैं क्योंकि इनमें पृथक पृथक अनेक वर्णों की स्थिति रहती है और अन्त में प्रायः एक संयोजक स्वर रहता है। इस प्रकार इन स्थूल वर्णों का उच्चारण करने के बाद अर्द्धेन्दु, बिन्दु नादान्त आदि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर वर्णों के उच्चारण का शून्य अवस्था तक अनुसन्धान किया जाता है। जैसे प्रणवात्मक पिण्ड मन्त्र में अकार, उकार, मकार इन स्थूल वर्णों के उच्चारण करने के बाद, अर्द्धचन्द्र, बिन्दु आदि वर्णों की सूक्ष्म स्थितियाँ मानी जाती हैं, अनुसन्धान करते-करते शून्यावस्था में पहुँचकर साधक स्वयं शिव बन जाता है। ‘सीऽहं’ यह भी प्रणव का ही स्वरूप है। इसमें से सकार और हकार रूप हल् का लोप हो जाने पर ॐ यह स्वरूप रह जाता है। इस प्रणव का यह ‘सोऽहं’ स्वरूप अजपा से गर्भित होकर हृदय में बहुत ही स्पष्ट रूप से ध्वनित होता रहता है। अर्थात् दिन रात बिना रुके निरन्तर चलती रहने वाली श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया में ध्वनित होता रहता है। यह ओंकार प्रत्येक प्राणों के हृदय में अनाहत नाद के रूप में ध्वनित होता रहता है। हम इसी तेज की उपासना करते हैं।
( धारणा – २० ) निजदेहे सर्वदिक्कं युगपद् भावयेद् वियत् । निर्विकल्पमनास्तस्य वियत् सर्व प्रवर्तते ॥४३।।
व्याख्या-सृष्टि में यह प्रकाशमय परमतत्त्व एक ही है अन्य सभी उसी के विभिन्न स्वरूप हैं जिनकी उस परमतत्त्व से भिन्न किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वही एक अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। वह परमतत्त्व शून्य स्वरूप है किन्तु संसार में सभी पदार्थों को भिन्न-भिन्न माना जाता है। इसका कारण मनुष्य के विचार ही हैं। ये विचार भी दो प्रकार के हैं- एक शुद्ध तथा दूसरे मायावी शुद्ध विचार में आत्मा को ही अपना स्वरूप माना जाता है जो संसार में लिप्त नहीं होता किन्तु अशुद्ध विचार में शरीर, मन, बुद्धि आदि को ही अपना स्वरूप माना जाता है। शुद्ध विचार में सभी आत्मस्वरूप होने से कोई भी वस्तु त्याज्य नहीं होती। सांसारिक पदार्थों का अस्तित्व भी इस परम चेतन से ही है जिससे वे उससे अभिन्न हैं, उसके विरोधी नहीं हैं किन्तु संसार में यह भिन्नता ज्ञात होती है कि सभी पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं। साधक का लक्ष्य उस एक ही परमतत्त्व शिव की ओर होना चाहिए कि सभी कुछ वही है उससे भिन्न किसी की सत्ता नहीं है। साधक को इन विकल्प वाली दशाओं का त्याग कर निर्विकल्प दशा में स्थित हो जाना चाहिए। यही प्रकाशमय स्वात्मस्वरूप है। यह सारा दृश्य प्रपंच सीपी में चाँदी की भ्रान्ति के समान असत्स्वरूप है। इस प्रकार की भावना करने से यह सारा दृश्य प्रपंच शून्यवत् ज्ञात होने लगता है तथा साधक उस परमतत्त्व में समाविष्ट हो जाता है।
(धारणा – २१) पृष्ठशून्यं मूलशून्यं युगपद् भावयेच्च यः ।युगपन्निर्विकल्पत्वान्निर्विकल्पोदयस्ततः।।४४।।
व्याख्या-जो साधक आगे पीछे, दाँये, बाँये आदि सभी जगह एक साथ शून्य की भावना करता है कि सभी कुछ शून्यस्वरूप ही है किसी की भी परमार्थ में कोई सत्ता नहीं है, वही एकमात्र परम तत्त्व शिव ही सर्वत्र व्याप्त है तो इस निर्विकल्प भावना के अभ्यास से उसके हृदय में किसी भी समय एकाएक उस निर्विकल्व शिव स्वभाव की अभिव्यक्ति हो जाती है, वह शिवस्वरूप ही हो जाता है। भिन्नता की सारी प्रतीति अज्ञान के कारण ही होती है। जब तक सत्य वस्तु का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक असत्य को ही सत्य मानने की भ्रान्ति बनी ही रहती है। इसी कारण जिन्हें उस परमतत्त्व की अनुभूति नहीं हुई है वे ही इस मिथ्या जगत् को सत्य मान लेते हैं। ज्ञान होने ही इस मिथ्यात्व की भावना का ज्ञान होता है। ज्ञान की साधना ही जीवन को उच्चता देती है। ज्ञान की ही सर्वत्र महिमा है। (ज्ञान की महिमा पर भी नन्दलाल दशोरा की एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है – आत्मज्ञान की विधियाँ)
( धारणा – २२) तनूदेशे शून्यतैव क्षणमात्रं विभावयेत् । निर्विकल्प निर्विकल्पो निर्विकल्पस्वरूपभाक् ।।४५।।
व्याख्या-साधक को इस स्थूल शरीर में जैसा पूर्व में बताया गया है निर्विकल्प स्वरूप की भावना करे कि यह शरीर आत्मा ही है आत्मा के सिवा इस शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है। आत्मा ही इसका वास्तविक स्वरूप है ऐसी भावना करने पर वह आत्मस्वरूप ही हो जाता है। भिन्नता की प्रतीति ही मिट जाती है कि यह शरीर आत्मा से कोई भिन्न वस्तु है। इस प्रकार वह जान लेता है कि यह सब कुछ शिव का विलासमात्र है। इससे भिन्न यहाँ कुछ भी सत् नहीं है। यह सारा जगत् चित् का अर्थात् चैतन्य का विलासमात्र है जो गन्धर्व नगर के समान भ्रान्ति से ही सत् जैसा भासता है वस्तुतः मिथ्या ही है। इस भावना का विकास होने पर साधक अपने ही स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।
( धारणा-२३)सर्वं देहगतं द्रव्यं वियद्व्याप्तं मृगेक्षणे । विभावयेत् ततस्तस्य भावना सा स्थिरा भवेत् ।।४६।।
व्याख्या-शिवजी यहाँ भैरवी से कहते हैं कि हे मृगेक्षणे! जिसके हृदय में पूर्व में बताये गये उपायों से शून्यता की भावना न आ सके उसे चाहिये कि वह अपने शरीर में स्थित सभी धातुओं अस्थि, मांस आदि की शुन्य रूप में भावना करे कि वे सब शून्यरूप ही है। मेरे इस शरीर में शून्य आकाश के सिवा कुछ भी सत्य नहीं है। शरीर की यह हेय वासना है कि शरीर ही मेरा वास्तविक स्वरूप है इसका त्याग कर उपादेय वासना का विस्तार करे कि यह शरीर नहीं आत्मा ही सब कुछ है जो शिवस्वरूप ही है। इस भावना से हृदय में प्रकाश का आविर्भाव हो जाता है। इस भावना से सारा जगत् रज्जु में सर्प की भाँति मिथ्या ज्ञात होने लगता है जो केवल कल्पना मात्र है। इस भावना से साधक का हृदय प्रकाश में आलोकित हो जाता है।
(धारणा-२४) देहान्तरे त्वग्विभागं भित्तिभूतं विचिन्तयेत् । न किञ्चिदन्तरे तस्य ध्यायन्न ध्येयभाग् भवेत् ।।४७ ।।
व्याख्या- अपने शरीर में त्वचा का जो ऊपरी भाग है उसमें भित्ति (दीवार) के समान जड़रूप की कल्पना करे। इस त्वचा के भीतर जो कुछ है उसमें कोई सारतत्त्व नहीं है ऐसा ध्यान करते-करते साधक को उस परतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है जो साररूप है। यह शरीर पंचभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के पंचीकरण होने से उत्पन्न हुआ है जो नाशवान् है तथा हाथी के कान की तरह अति चंचल है। यह किसी एक स्थान पर स्थिर नहीं रह सकता। इसी के साथ ये दिशाएँ भी काल्पनिक हैं जिनका कोई आधार ही नहीं है। ये निर्जीव हैं। केवल वह चैतन्य आत्मा ही सत्स्वरूप है। इस सत्य को जो व्यक्ति ठीक से जान लेता है वही ज्ञानी कहा जाता है। वह तन्मात्रा, मन, बुद्धि एवं अहंकार को ही अपना स्वरूप मान बैठा था ये भाव ही शान्त हो जाते हैं। यही आत्मानुभव की स्थिति है।
( धारणा – २५ ) हृद्याकाशे निलीनाक्षः पद्मसंपुटमध्यगः । अनन्यचेताः सुभगे परं सौभाग्यमाप्नुयात् ।।४८।।
व्याख्या – भगवान् भैरव यहाँ फिर भैरवी है कि हे शुभगे! हृदयरूपी आकाश में अर्थात प्राण अपान के मध्यवर्ती स्थान सुषुम्ना की मध्य नाड़ी में जिसका बाह्य और आन्तर इन्द्रिय समूह लीन हो जाता है और जो ऊर्ध्व और अधः स्थान में विद्यमान पद्म के सम्पुट के मध्य में भावना के बल से प्रविष्ट हो गया है अर्थात् जो चिन्मात्र में स्थित हो गया है अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित हो गया है तथा अन्य किसी वस्तु में जिसका चित्त संलग्न नहीं है वह योगी परमानन्द के विकसित हो जाने से अत्यन्त स्पृहणीय अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
( धारणा-२६) सर्वतः स्वशरीरस्य द्वादशान्ते मनोलयात् । दृढबुद्धेर्दृढीभूतं तत्त्वलक्ष्यं प्रवर्तते ॥४९॥
व्याख्या- अपने शरीर के भीतर जब यह चैतन्य स्वरूपी देवता प्रविष्ट हो जाता है तो इस शरीर स्थित द्वादशान्त में यह मन एकाग्र होने से उसमें प्रविष्ट हो जाता है अर्थात् सुषुम्ना में प्रविष्ट हो जाता है उस समय मन की सभी वासनाओं का अन्त हो जाता है और वह मन विश्रान्ति की ओर बढ़ता जाता है और अन्त में उसके हृदय में परतत्त्व का प्रकाश आलोकित हो जाता है।
( धारणा २७) यथा तथा यत्र तत्र द्वादशान्ते मनः क्षिपेत् । प्रतिक्षणं क्षीणवृत्तेर्वेलक्षण्यं दिनैर्भवेत् ||५०||
व्याख्या-पूर्व में कई स्थानों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए बताया गया है जैसे श्वास प्रश्वास के अन्तिम भाग द्वादशान्त में हृदय में, सुषुम्ना में तथा अन्य नाड़ियों के अन्तिम भाग अर्थात द्वादशान्त में ध्यान को केन्द्रित करने को कहा गया है। वहाँ उनमें से किसी भी भाग में जहाँ जहाँ स्वाभाविक रूप से किसी भी प्रकार से यह चेतना शक्ति जावे उस उस द्वादशान्त में बार बार मन को स्थिर करे ऐसा करने से मन की वृत्तियाँ जो विभिन्न विषयों की ओर जा रही हैं वे क्षीण होकर मन की चंचलता समाप्त हो जायेगी। ऐसा करने से थोड़े ही समय में अपने भीतर असामान्य उस परभैरव स्वरूप की अभिव्यक्ति हो जायेगी। मुख्य बात मन को किसी भी एक स्थान पर केन्द्रित करना है उसकी विधि कुछ भी हो तथा स्थान भी कोई भी हो। आवश्यक नहीं कि श्वासप्रश्वास में ही हो, हृदय में हो, सुषुम्ना में हो आदि कहीं भी हो। इसका बार-बार अभ्यास करना चाहिए जिससे चित्त की चंचलवृत्ति शान्त हो जाती है इसी शान्तावस्था में ही उस चैतन्य की अनुभूति होती है।
( धारणा-२८) कालाग्निना कालपदादुत्थितेन स्वकं पुरम् । प्लुष्टं विचिन्तयेदन्ते शान्ताभासस्तदा भवेत् ।। ५१।।
व्याख्या-धारणा की एक विधि यह भी है कि साधक उस कालाग्नि का ध्यान करे जो सारे शरीर को भस्म कर देती है। इसकी विधि है कि साधक इसका ध्यान करे कि मेरे दाहिने पैर के अंगूठे से यह कालाग्नि उठ रही है और वह मेरे सारे शरीर को भस्म कर रही है। जिस प्रकार गुग्गुल जलकर सभी विषाणुओं को नष्ट कर चारों ओर सुगन्धि फैला देता है उसी प्रकार यह कालाग्नि मेरे सारे दोषों को मिटाकर अपने शान्तस्वरूप को प्राप्त कर देती है। वह चैतन्य स्वरूप ही हो जाता है।
( धारणा- २९) एवमेव जगत्सर्वं दग्धं ध्यात्वा विकल्पतः । अनन्यचेतसः पुंसः पुंभावः परमो भवेत् ॥५२॥
व्याख्या- पूर्व श्लोक में कालाग्नि में अपने शरीर के भस्म होने की बात कही गयी है उसी प्रकार इस श्लोक में कहा गया है कि कालपद से उठी कालाग्नि की ज्वाला से देह के भीतर और बाहर वर्तमान के सारे जगत् के सभी पदार्थ भस्म हो गये हैं ऐसी भावना का अभ्यास करने वाले अनन्य चित्त, निर्विकल्प चित्त भगवान् भैरव का स्वरूप आविर्भूत हो जाता है।
( धारणा-३०) स्वदेहे जगतो वापि सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि च । तत्त्वानि यानि निलयं ध्यात्वान्ते व्यज्यते परा ॥५३॥
व्याख्या- अपने शरीर के सभी पदार्थ तथा जगत् के पदार्थों का स्थूल रूप ही हमें ज्ञात होता है किन्तु इनका सूक्ष्म रूप जो इन सबका कारणतत्त्व था वह हमें ज्ञात नहीं है किन्तु उस कारणतत्त्व में अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जैसे शरीर में प्रकृति, महत् अहंकार आदि तथा जगत् में पाँच महाभूत, अस्थि, मांस आदि जो स्थूल तत्त्व हैं ये अपने अपने कारण तत्त्वों में विलीन हों रहे जो उनका सूक्ष्म रूप है इस तरह की भावना करने पर अन्त में वह परादेवी प्रकट हो जाती है जो इन सभी का परम कारणतत्त्व हैं जिसके ये सभी स्थूल रूप हैं जो दृश्य हैं जिस प्रकार वृक्ष के बीज में ही सारा वृक्ष समाया हुआ है तथा मयूर के अण्डे में सारा मयूर समाया हुआ है इसी प्रकार यह सारा दृश्यजगत् उस परभैरव में समाया हुआ है जो बाहर प्रकाशित हो रहा है ऐसी धारणा करने पर साधक के सारे भेद मिट जाते हैं जिससे वह अद्वय की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
(धारणा-३१) पीनां च दुर्बलां शक्ति ध्यात्वा द्वादशगोचरे । प्रविश्य हृदये ध्यायन् मुक्तः स्वातन्त्र्यमाप्नुयात् ।। ५४ ।।
व्याख्या- जिन्हें भरपेट खाना-पानी मिलता है तथा जो आरामतलबी जीव होते हैं उनका शरीर तो मोटा हो ही जाता है किन्तु उनकी अक्ल भी मोटी हो जाती है। वे भोगों में ही आसक्त रहते हैं। अध्यात्म में उनकी रुचि न होने से उनकी प्राणशक्ति भी क्षीण हो जाती है। यदि वे योगाभ्यास में लग जाते हैं तो उनके शरीर का मोटापा घटने के साथ साथ उनकी प्राणशक्ति भी क्षीण होती जाती है अर्थात् सूक्ष्म होती जाती है। इस सूक्ष्म प्राणशक्ति को द्वादशान्त स्थान में अथवा हृदय में प्रविष्ट करके जो ध्यान करता है वह साधक मुक्त होकर अपनी स्वाभाविक स्वातन्त्र्य शक्ति को प्राप्त कर लेता है। मुक्ति का अर्थ ही है पूर्ण स्वतन्त्रता । इसका अनुभव अपने वास्तविक स्वरूप को जान लेने से ही होता है। जब तक इसका ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह संसार में ही भटकता रहता है। स्वयं को जान लेना ही परमेश्वर को जान लेना है। दोनों एक ही चेतन के दो नाम मात्र हैं। जब साधक इस स्थिति में पहुँच जाता है तभी कोई सद्गुरु अपनी दिव्य शक्ति को उसमें प्रवाहित कर उसे वास्तवकिता का अनुभव करा देता है यहीं परमज्ञान की स्थिति है।
(धारणा-३२)भुवनाध्वादिरूपेण चिन्तयेत् क्रमशोऽखिलम् । स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या यावदन्ते मनोलयः ||५५||
व्याख्या-तन्त्र शास्त्र में छः अध्व माने गये हैं जो सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाकर जगत् का रूप लेते हैं। छः अध्व हैं- भुवन, तत्त्व, कला, मन्त्र, पद और वर्ण सूक्ष्म है इनसे पद व मन्त्र बनते हैं। इसी प्रकार कला सूक्ष्म है तथा इसी से तत्त्व व भुवन की रचना होती है जो स्थूल रूप है। इस प्रकार यह सारा जगत् सूक्ष्म और पररूप में विद्यमान है। योगी इस पर चलकर सूक्ष्म का चिन्तन करे तथा सूक्ष्म से भी पर स्वरूप का चिन्तन करता हुआ उसी में अपने को विलीन कर दे। यही सारा विश्व उस विश्व और विश्वात्मक उस परब्रह्म की क्रिया शक्ति का विस्तार है। यह शब्दब्रह्म ही छः अध्व रूप होता है अतः पर ही सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म ही स्थूल में विद्यमान रहता है। व्याप्य व्यापक भाव से व्यापक वाप्य रहता है। जिस प्रकार वर्ण से ही मन्त्र व पद बनते हैं उसी प्रकार कला से ही तत्त्व व भुवन बनते हैं। वे सब सूक्ष्म से ही स्थूल रूप लेते हैं जो अभिन्न रूप से स्थूल में विद्यमान रहते हैं। इनको भिन्न-भिन्न नहीं माना जा सकता। जिस प्रकार घट में मिट्टी रहती ही है इसी प्रकार बाद में आविर्भूत होने वाला पदार्थ अपने पूर्ववर्ती कारणतत्त्व में विद्यमान रहता ही है जैसे बीज में पूरा वृक्ष सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहता ही है अन्यथा वह प्रकट कैसे हो सकता है ? इस प्रकार विश्व के सभी पदार्थ अपने कारणतत्त्व में विद्यमान रहते हैं अतः सभी पदार्थ एक दूसरे से सम्बद्ध हैं अतः ये सब सर्वात्मक है और ये सभी उस परमेश्वर की स्वातन्त्र्य शक्ति का ही विलास है। योगी को स्थूल से सूक्ष्म में तथा सूक्ष्म से परभाव में अर्थात् चिन्मय के बोध में अपने मन का विलयन कर देना चाहिए। इसी प्रक्रिया से साधक का चित्त शिवतत्त्व में विलीन हो जाता है। इस सारी शक्ति का अधिपति महेश्वर है जो पराशक्ति के अधिष्ठाता हैं।
( धारणा-३३) अस्य सर्वस्य विश्वस्य पर्यन्तेषु समन्ततः ।अध्वप्रक्रियया तत्त्वं शैवं ध्यात्वा महोदयः ।।५६।।
व्याख्या- यह सम्पूर्ण जगत् षडध्वमय है जो भुवन, तत्त्व व कला तथा मन्त्र, पद और अर्थ रूपी दोनों प्रकार की कलाओं की रचना है। इन दोनों शक्तियों की सहायता से ही शिव सृष्टि की रचना करते हैं। भुवन, तत्त्व व कला वर्ग प्रकाश से आविर्भूत है। तथा वर्ण, पद और मन्त्र विमर्श स्वरूप है। जिस प्रकार दो अरणियों (लकड़ियों) के रगड़ने से अग्नि उत्पन्न होती है उसी प्रकार इन दोनों शक्तियों की सहायता से ही जगत् की रचना होती है। शिव इन दोनों शक्तियों की सहायता से ही सृष्टि की रचना व संहार करता है। अतः यह जगत् शिव से भिन्न नहीं है इसलिए जगत् के स्वरूप को छोड़कर केवल शिव का ध्यान करने वाले योगी को परमशिव का साक्षात्कार हो जाता है। शिव प्रकाश व विमर्श स्वरूप है वही परमेश्वर है।
(धारणा-३४) विश्वमेतन्महादेवि शून्यभूतं विचिन्तयेत् । तत्रैव च मनो लीनं ततस्तल्लयभाजनम् ।।५७ ।।
व्याख्या – भगवान् शिव यहाँ फिर भैरवी से कहते हैं कि हे महादेवी! यह सारा दृश्यजगत् शून्यभूत है जो गन्धर्व नगर के समान दिखाई तो देता है किन्तु इसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। सत्ता तो केवल शिव की है जो निर्विवाद रूप से सत्य है। अन्य सभी मिथ्या व कल्पना मात्र है जिसे भ्रमवश सत्य मान लिया जाता है। वास्तव में यह शून्य स्वरूप है, कुछ भी नहीं है असत् स्वरूप है। मन को इसी प्रकार की भावना में लीन कर देना चाहिए। इस प्रकार की भावना से साधक अपने ही वास्तविक स्वरूप में लीन हो जाता है।
( धारणा-३५)घटादिभाजने दृष्टिं भित्तीस्त्यक्त्वा विनिक्षिपेत् । तल्लय तत्क्षणाद् गत्वा तल्लयात्तन्मयो भवेत् ।।५८ ।।
व्याख्या-घट के भीतर के आकाश में साधक अपने मन को स्थिर करे तथा देखे कि यह भीतर का आकाश बाह्य आकाश से किसी प्रकार भिन्न नहीं है किन्तु घट की दीवारों से इसमें भिन्नता ज्ञात हो रही है। ये दीवारें ही भिन्नता उत्पन्न कर रही हैं जबकि बाह्य आकाश में ऐसी कोई दीवार है ही नहीं इसलिए आकाश आकाश में कोई भिन्नता नहीं है। साधक को घट के भीतर के शून्य आकाश में ध्यान करना चाहिए तो ऐसा करने से यह मन शून्य में ही विलीन हो जाता है। मन के शून्य में विलीन होने पर वह परब्रह्म में विलीन हो जाता है, स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। सारी साधना मन को विलीन करने की है क्योंकि यह सारा जगत् मन के द्वारा ही कल्पित है। मन की विभिन्न वृत्तियाँ ही संसार की रचना करती है। मन जैसा देखना चाहता है उसे संसार वैसा ही दिखाई देता है। मन के परिवर्तन से संसार अपने आप बदल जाता है। उसे बदलने का कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। सभी संसार को बदलने का प्रयत्न करते हैं किन्तु अपने मन को बदलना नहीं चाहते। संसार बाधा नहीं है, यह मन ही बाधा है, जिसके बदलने पर सब कुछ बदल जाता है। मनुष्य ब्रह्म ही है किन्तु इस मन के कारण उसे जगत् दिखाई दे रहा है, ब्रह्म नहीं दिखाई देता । अतः मन को विलीन कर देने पर वह ब्रह्म ही हो जाता है। इस मिथ्या जगत् से मुक्ति मिल जाती है।
( धारणा-३६) निर्वृक्षगिरिभित्त्यादिदेशे दृष्टिं विनिक्षिपेत् । विलीने मानसे भावे वृत्तिक्षीणः प्रजायते ।।५९।।
व्याख्या – यह सृष्टि चित्त की वृत्ति का ही प्रक्षेपण है। जिसकी जैसी वृत्ति होती है उसे वह जगत वैसा ही दिखाई देता है। किसी को यह जगत् स्वर्ग से भी सुन्दर दिखाई देता है और कहते हैं कि देवता भी यहाँ आने को तरसते रहते हैं तो बुद्ध व महावीर को यह दुःख रूप ही दिखाई दिया कि यहाँ सब दुःख ही दुःख है, सुख कहीं है ही नहीं। वे सुख की चाह में ही गृह त्याग कर गये किन्तु वेदान्त कहता है यह जगत् ब्रह्मस्वरूप ही है जो सत् चित् व आनन्दस्वरूप है। अतः यह आनन्दस्वरूप ही है। इस मन ने ही इसे दुःख रूप बना दिया है। अतः मन के विलीन होने पर ही उसे उस आनन्द की अनुभूति हो सकती है जो स्वयं ब्रह्म ही है। मन की इसी वृत्ति को क्षीण करने के लिए इस विज्ञान भैरव में जो ११२ उपाय बताये गये हैं वे सभी मन की गलित करने के ही उपाय हैं। इस श्लोक में एक और उपाय बताया गया है कि किसी वृक्ष रहित प्रदेश अर्थात् मरुभूमि में, अथवा शून्य दिशाओं में पर्वत के शिखर पर अथवा किसी भी ऊँचे स्थान पर जाकर अथवा भित्ति (दीवार) आदि की ओर अपनी दृष्टि को स्थिर करे। इस भावना से साधक की दृष्टि में शून्यता समाने लगती है। मन की वृत्ति किसी आलम्बन को पाकर ही उस ओर आकर्षित होती है। जब उसके सभी आलम्बन छूट जाते हैं तो मन स्थिर होने लगता है तथा मन के स्थिर होने पर उसकी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और उसमें महाप्रकाश का आविर्भाव हो जाता है। वह उस परमतत्त्व में स्थित हो जाता है। जिससे वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है। उसकी स्मृति लौट आती है जो मन की वृत्तियों के फेर में विस्मृत हो गई थी। पातंजल योग सूत्र (३ / ४३) में वर्णित चित्त की इसी स्थिति को महाविदेह्य कहा है जिसमें कहा गया है कि इसके ज्ञान से आवरण का नाश हो जाता है। जिससे प्रकाशात्मक स्वरूप आलोकित हो जाता है।
(धारणा-३७) उभयोर्भावयोर्ज्ञाने ध्यात्वा मध्यं समाश्रयेत् । युगपच्च द्वयं त्यक्त्वा मध्ये तत्त्वं प्रकाशते ||६०||
व्याख्या—जिस प्रकार एक पेण्डुलम दायें से बायें निरन्तर चलता रहता है किन्तु दोनों स्थितियों के मध्य में ही वह स्थिर रहता है। जिस प्रकार श्वास व प्रश्वास की क्रिया निरन्तर होती रहती है किन्तु मध्य में द्वादशान्त की अवस्था में वह स्थिर हो जाती है। व्यक्ति का मन बड़ा चंचल है वह कभी शान्त रह ही नहीं सकता। जीवन की भागदौड़ में जब वह विश्राम की स्थिति में आता है तो उसे बस आनन्द आता है किन्तु उस समय या उसके विचार निरन्तर चलते रहते हैं। एक विचार बन्द होते ही दूसरे विचार अपने आप आ जाते हैं। इन दो विचारों के मध्य जो थोड़ा सा अवकाश रहता है वह अवकाश ही उपयोगी है। वही स्थिर अवस्था है जिस पर ध्यान को केन्द्रित करना है। यह सारी दोलन की अवस्था, चंचलता की अवस्था, विचारों के प्रवाह की अवस्था वह शक्तितत्त्व है जो समस्त क्रियाओं का कारण है। जब यह शक्ति अपना कार्य करना बन्द कर देती है तभी उस चेतनतत्त्व की अनुभूति होती है, हलचल में नहीं होती। जिस प्रकार पानी में हलचल होती रहती है तब तक उसमें चन्द्रमा का बिम्ब स्पष्ट नहीं दिखाई देता। जब वह हलचल शान्त हो जाती है तभी दिखाई देता है। इस श्लोक में यही बात कही गयी है कि मन में जो भी भाव उठते हैं तो एक के बाद दूसरे भाव उत्पन्न होते रहते हैं। इन दो भावों के मध्य जो थोड़ा सा अवकाश होता है वही भावों की स्थिर अवस्था है। उस अवस्था में ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए। यदि वह स्थिर अवस्था थोड़े समय बनी रही तो इसी अवस्था में चेतना का अनुभव हो जाता है। इस भावनिर्मुक्त शून्य में चित्त के लीन हो जाने के कारण उसमें परमतत्त्व की अभिव्यक्ति हो जाती है, हलचल की स्थिति में उसे नहीं जाना जा सकता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो भी क्रिया है उसका करने वाला वही है। तथा जो भी ज्ञान व ज्ञेय है उसका ज्ञाता भी वही है। इस प्रकार का ज्ञान हो पाना ही परम उपलब्धि है। योगी को इसी को जानने का अभ्यास करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य जो भी है वे सब इसी परमतत्त्व का विस्तार है जो इससे भिन्न नहीं है यही एकमात्र ज्ञान है जिसे प्राप्त कर साधक धन्य हो जाता है। कोई सद्गुरु इसी स्थिति में शिष्य को ‘तत्त्वमसि’ यह तू ही है इसका उपदेश करता है तभी उसके हृदय की ग्रन्थि खुलती है तथा सभी संशय मिटते हैं व सभी कर्मों का क्षय हो जाता है। मुण्डक उपनिषद् में यही बात कही गयी है “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यते सर्व संशयः । क्षीयन्ते चास्यकर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे । गीता में इसी को परमधाम कहा है।
(धारणा-३८) भावेन्यक्ते निरुद्धा चिन्नैव भावान्तरं व्रजेत् । तदा तन्मध्यभावेन विकसत्यति भावना ॥ ६१॥
व्याख्या- किसी अदृष्य, जिसे नहीं देखा है उसमें चेतना को अभ्यास के सहारे स्थापित कर देने पर पहले देखे गये बाह्य पदार्थों की ओर आकृष्ट नहीं होती। जैसे शिव के तीन नेत्र विष्णु की चार भुजा आदि से युक्त शिव व विष्णु का अपने इष्ट ध्येय पदार्थों में चेतना को स्थिर कर दिया जाये तो संसार के दृष्ट पदार्थों में ध्यान नहीं जाता। चित्त की वृत्ति ही ऐसी है कि वह अपनी इच्छित वस्तु की ओर ही आकृष्ट होती है तथा उस समय दूसरी वस्तु की ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता। वह उन्हें देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है उसे जब कोई इच्छित वस्तु नहीं मिलती तभी वह व्यर्थ व अनुपयोगी को ही उपयोगी समझकर उसकी ओर आकर्षित होता है। जब उसे अपने इष्ट के ध्यान में लगा दिया जाता है तो वह सांसारिक पदार्थों की ओर आकृष्ट होता ही नहीं यहाँ तक कि उसे भोजन आदि से भी रुचि हट जाती है भोगों से ही उसकी रुचि समाप्त हो जाती है। उसका चित्त उसी में एकाग्र हो जाता है। इसी को ‘समाधि’ अवस्था कहा जाता है। अतः अपनी इच्छित वस्तु में ध्यान को केन्द्रित करना भी धारणा का ही रूप है। वह वस्तु चाहे दृष्ट हो अथवा अदृष्ट, कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब ध्येय को ही अपना विषय बनाकर चित्त को इस प्रकार स्थिर किया जाये जैसे पवनरहित स्थान में दीपक स्थिर रहता है। इस स्थिति में ध्याता व ध्यान को छोड़कर ध्येय मात्र ही शेष रह जाता है। इसी को निरालम्ब अथवा शून्य स्थिति कहा जाता है। योगी के लिए यही स्थिति प्राप्त करने योग्य है। चित्त इसी स्थिति को प्राप्त कर विश्रान्ति प्राप्त करता है व उसका सारा भटकाव समाप्त हो जाता है। इसी स्थिति में उसे आत्मबोध होता है जो उसकी परमानन्द की अवस्था है। इसी को ब्रह्मस्वरूप होना कहा जाता है।
(धारणा-३९) सर्वं देहं चिन्मयं हि जगद् वा परिभावयेत् ।युगपन्निर्विकल्पेन मनसा परमोदयः ||६२||
व्याख्या – मन में ही संकल्प विकल्प उठते हैं तथा इसी के कारण संसार की सभी वस्तुओं में भेद की प्रतीति होती है। मन कभी अभेद को नहीं जान सकता। इस अभेद ज्ञान के लिए साधक को मन के पार जाकर आत्मा के तल पर सोचना पड़ेगा। इस आत्मस्वरूप को जानने के लिए ही उसे साधना में गुजरना पड़ेगा। इस साधना के लिए भारत ने अनेक विधियाँ खोजी हैं। जिसे जो उचित लगे उसको अपना लेना चाहिए। महत्त्व विधि का नहीं, उपलब्धि का है। नाव के रूप में जो पार लगा दे वही श्रेष्ठ है। शीघ्र ही पहुँचने की होड़ में दुर्घटना का खतरा बना रहता है अतः सुरक्षित मार्ग अपनाना ही में श्रेष्ठ होता है। इस श्लोक में गन्तव्य तक पहुँचने का एक बहुत ही सुरक्षित व निश्चित मार्ग बताया गया है। इसमें कहा गया है कि इस सम्पूर्ण देह को अर्थात् इसके प्रत्येक अंग को अथवा इस सारे जगत् के चिन्मय स्वरूप में बिना किसी क्रम के भावना करे कि यह सब कुछ चेतन स्वरूप है। इस प्रकार की भावना करने से मन में जो भेदों की प्रतीति हो रही है वे सभी विकल्प समाप्त होकर वह निर्विकल्प स्थिति में पहुँच जाता है। उसे ज्ञात होने लगता है कि सभी कुछ चैतन्य ही है। इसी भावना से चित् में एक चमत्कार दिखाई देने लगता है। अर्थात् प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देने लगेगा। इससे ज्ञात हो जाता है कि यह शरीर व सारा जगत् प्रकाश से भिन्न नहीं है बल्कि प्रकाश का ही रूप है। यह प्रकाश उस परमतत्त्व आत्मा अर्थात् ईश्वर का ही प्रकाश है जो सर्वव्याप्त है। ऐसा ज्ञान होने पर मन की निर्विकल्प स्थिति प्राप्त हो जाती है। यही योगी की परमोदय अवस्था है। मन की यही उत्कर्ष अवस्था है जिसे जानकर योगी को अभेद का अनुभव हो जाता है कि सभी कुछ उस परमतत्त्व के ही विभिन्न रूप मात्र हैं। उससे भिन्न किसी की भी सत्ता नहीं है।
( धारणा ४० ) सर्व जगत् स्वदेहं वा स्वानन्दभरितं स्मरेत् । युगपत् स्वामृतेनैव परानन्दमयो भवेत् ।। ६३ ।।
व्याख्या – वेदान्त और तन्त्र में एक ही प्रकार के विचार दिये गये हैं किन्तु उनकी अभिव्यक्ति में भिन्नता होने से दोनों को भिन्न-भिन्न माना जाने लगा। वस्तुतः एक ही सत्य के दो प्रकार से कहा गया है। वेदान्त ने सृष्टि के उस परमतत्त्व को सत् चित् व आनन्दस्वरूप माना है अर्थात् वही सत्ता है, वही चैतन्य स्वरूप है तथा वही आनन्द स्वरूप भी है। यह सृष्टि उसी का रूप होने से यह भी चैतन्य स्वरूप ही है। इसको जड़ मानना भ्रान्ति मात्र है तथा अज्ञान है। ज्ञान होने पर ही ज्ञात होता है कि यह चैतन्य का ही घनीभूत रूप है अतः उससे भिन्न नहीं है। इसको जानने के लिए पूर्व श्लोक में इसकी विधि बतायी गयी है जिसका प्रयोग करके इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की जा सकती है। यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है। इस सूत्र में उस परमतत्त्व के आनन्द स्वरूप की व्याख्या की गई है कि यह सृष्टि उस परमतत्त्व के आनन्द स्वरूप की ही रचना है। अतः यह समस्त सृष्टि व शरीर आनन्द स्वरूप ही है। उससे भिन्न नहीं है। मनुष्य बाहरी विषयों में जो आनन्द की खोज करता है वह वास्तविक आनन्द नहीं है। वास्तविक आनन्द तो स्वयं के भीतर ही है, जो स्वयं की आत्मा है। मनुष्य को आनन्द की जो अनुभूति होती है वह उस चेतन आत्मा के कारण होती है। आत्मा के अतिरिक्त इस जड़ शरीर व जगत् में आनन्द की अनुभूति नहीं हो सुकती। अतः यह सम्पूर्ण जगत् व शरीर आनन्द स्वरूप ही है, इसे जड़ मान लेना अज्ञान ही है। उस पर प्रयोग करने के लिए योगी को इस प्रकार की भावना करनी चाहिए कि यह सम्पूर्ण जगत् उस परमतत्त्व के आनन्द से परिपूर्ण है उससे भिन्न नहीं है। इस प्रकार की निरन्तर भावना करते रहने से वह योगी सहसा उस अमृतमय स्वाभाविक आनन्दमय अवस्था में प्रविष्ट हो जाता है। उपनिषदों में इसी का वर्णन मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया गया है कि ये सब भूत पदार्थ आनन्द से ही उत्पन्न होते हैं, उसी की सहायता से जीते हैं और प्रलय की अवस्था में उसी में लीन हो जाते हैं। यही परमतत्त्व का स्वरूप है जिसे प्राप्त कर योगी कृत्कृत्य हो जाता है। जिस प्रकार वाष्प ही जमकर बर्फ बन जाती है उसी प्रकार यह चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जमकर सृष्टि रूप में दिखाई देती है।
( धारणा – ४१) वायुद्वयस्य संघट्टादन्तर्वा बहिरन्ततः । योगी समत्वविज्ञानसमुद्गमनभाजनम् ।।६४।।
व्याख्या- श्वास-प्रश्वास के रूप में प्राण व आपान का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। हृदय से निकलकर प्राणवायु बाहर की ओर जाती है तथा वहाँ से अपानवायु का उदय होकर भीतर की ओर हृदय तक जाती है। इन दोनों वायुओं का बाहर तथा भीतर में जहाँ मिलन होता है वहाँ बीच में वह थोड़े समय रुकती है। इन दोनों स्थानों में प्राण व अपान दोनों ही सम स्थिति में होते हैं जहाँ दोनों में कोई भिन्नता ज्ञात नहीं होती कि कौन प्राण है व कौन अपान है। योगी इसी स्थिति का ध्यान कर समता को प्राप्त हो जाता है, उसकी भेद की भावना ही समाप्त हो जाती है। इस भावना के उदय होने से उसे सम्पूर्ण जगत् में भी समता की भावना का विकास हो जाता है। उसकी भेदभाव की भावना ही समाप्त हो जाती है। यही उसके बोध की स्थिति है। वह प्रबुद्ध हो जाता है। यहाँ शून्यकला की अवस्था है। वही योगी की परमसिद्धि की स्थिति है। गीता में इस समत्व दृष्टि को ही योग कहा गया है। इस समत्व दृष्टि के उदय होने पर ही साधक यह जान जाता है कि यह सम्पूर्ण दृश्यजगत् इस एकमात्र परमतत्त्व का ही विस्तार है जो उससे भिन्न नहीं है। सभी उसी के विभिन्न रूपमात्र हैं। वह एक ही अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है इसलिए इनमें कोई भेद नहीं है। शरीरों में भेद होने से आत्म चेतना में भेद नहीं हो जाता। वह सबमें समान रूप से व्याप्त है ऐसा ज्ञान हो जाना ही परमसिद्धि है। किन्तु संसार में कई अज्ञानी ऐसे भी हैं जो आत्माओं को भी भिन्न-भिन्न मानकर सबमें भेद करके ही देखते हैं। वे ईश्वर को भी भिन्न-भिन्न मान लेते हैं। ऐसी दृष्टि ही संसार में विकृति पैदा कर द्वेष फैलाती है। इस समत्व की बात केवल भारत के अध्यात्म की ही देन है। अन्य कोई धर्म इसकी बात नहीं कहता। अतः भारत का वेदान्त व तन्त्र दर्शन को ही प्रामाणिक माना जा सकता है।
( धारणा-४३) सर्वस्रोतोनिबन्धेन प्राणशक्त्योर्ध्वया शनैः ।पिपीलस्पर्शवेलायां प्रथते परमं सुखम् ॥६६॥
व्याख्या – सामान्य रूप से श्वासप्रश्वास निरन्तर चलता रहता है। वह हृदय से बाहर द्वादशान्त तक चलता है इसे रेचक व बाहर द्वादशान्त से पुनः हृदय की ओर आने को पूरक कहा जाता है। द्वादशान्त में तथा हृदय में जाकर जहाँ वह थोड़ी देर रुकता है उसे कुम्भक दशा कहते हैं। इस कुम्भक दशा में योगी को स्वात्मस्वरूप का अनुभव होने लगता है किन्तु प्राणों की इस गति को बीच में ही रोक देने पर वह न भीतर जा सकता है, न बाहर जा सकती है तो इसे स्तम्भ वृत्ति वाला कुम्भक प्राणायाम कहते हैं। इस स्थिति में यह प्राण शरीर से बाहर भी निकल सकता है जिसके निकलने के लिए नौ द्वार हैं- क्षोत्र, चक्षु, नासिका, मुख, गुदा और उपस्थ (लिंग)। यदि इन सभी द्वारों को बन्द कर दिया जाये तो यह प्राण वायु सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठने लगती है। इस समय योगी को ऐसा अनुभव होता है जैसे सुषुम्ना के भीतर कोई चींटी जैसा चल रहा है। उसे यह भी अनुभव होता रहता है कि वह कहाँ तक गई है। इस स्थिति में योगी को परम आनन्द की अनुभूति होने लगती है और उसका मन अन्तर्मुख हो जाता है। प्राणशक्ति का इस प्रकार किसी स्थान पर रुक जाने को ही प्राणायाम (प्राण+आयाम) कहा जाता है। प्राणों का यह रूकना देश, काल और संख्या के अनुसार भिन्न-भिन्न अवधि का हो सकता है जिसे बढ़ाया जा सकता है। यह श्वास की गति दीर्घ व सूक्ष्म भी होती रहती है। दीर्घ होने पर यह बाहर द्वादश अंगुल से आगे चौबीस अंगुल तक जा सकती है तथा भीतर हृदय से आगे नाभि तथा मूलाधार तक जा सकती है। सूक्ष्म होने पर यह ऊपर की ओर उठने लगती है जो सहस्रार तक जा सकती है। सहस्रार में जाकर यह शिवतत्त्व में विलीन हो जाती है। यही योग की परमसिद्धि है। यहाँ जाकर प्राण शान्त हो जाता है, तो मन भी शान्त हो जाता है। यही योगी की निर्विकल्प अवस्था है। यही योगी की परमानन्द की अवस्था है जहाँ पहुँचकर उसकी यात्रा की समाप्ति हो जाती है यह योग साधना अति कष्टप्रद है। यह पुरुषार्थ का मार्ग है।
धारणा-४४) वह्नेविषस्य मध्ये तु चित्तं सुखमयं क्षिपेत् । केवलं वायुपूर्ण वा स्मरानन्देन युज्यते ॥६७।।
व्याख्या – इस मानव शरीर में पवन के ठहराव में सोलह स्थान हैं जिनको योग शास्त्र में आधार कहा जाता है इनमें अग्नि और विष नाम के दो स्थान हैं इनमें नाभि के नीचे चार अंगुल तथा लिंग के ऊपर अग्नि का स्थान है जिसे स्वाधिष्ठान चक्र कहा जाता है तथा लिंग के मध्य में विष नामक स्थान माना गया है। इन दोनों स्थानों के मध्य में आनन्दमय की भावना करनी चाहिए चाहे वहाँ चित्त प्राणायाम से नियन्त्रित हो अथवा न हो। इस भावना के अभ्यास से वह कामानन्द से परिपूर्ण हो जाता है अर्थात् साधक को कामानन्द के समान ही आनन्द की अनुभूति होने लगती है। इस आनन्द की तुलना कामानन्द से इसलिए की जाती है कि अन्य सभी विषयों के आनन्द की अपेक्षा कामानन्द को ही सर्वोत्कृष्ट आनन्द माना गया है। इसलिए योगी को वैसा ही आनन्द प्राप्त होने से उसे कामानन्द की इच्छा ही नहीं होती वह परमानन्द में स्थित हो जाता है। यहाँ ‘स्मरानन्दे न युज्यते’ के बजाय ‘कामानन्दे न युज्यते’ होना चाहिये।
( धारणा-४५) शक्तिसङ्गमसं क्षुब्धशक्त्यावेशावसानिकम् । यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं स्वाक्यमुच्यते ॥६८।।
व्याख्या – स्त्री सहवास से उत्तेजित हुई शक्ति आनन्द प्राप्ति की समावेश दशा की समाप्ति के समय घनघनाहट की सी अनुभूति होती है। स्त्री के सहवास से अभिव्यक्त इस सुखमय स्थिति को ब्रह्मानन्द सहोदर माना जाता है अर्थात् ब्रह्मानुभूति के समय जिस आनन्द की अनुभूति होती है उसी की एक झलक स्त्री सहवास के समय अन्त में होती है। दोनों में केवल क्षणिक और स्थायित्व का ही अन्तर होता है। इस समय स्त्री और पुरुष का द्वैतभाव छूट जाता है और स्वात्मनिष्ठ आनन्दमात्र शेष रह जाता है। ब्रह्मानन्द में भी जीव भाव छूटकर आनन्दमात्र ही शेष रह जाता है। आचार्य रचनीश ने अपने ग्रन्थ ‘सम्भोग से समाधि की ओर’ में इसी स्थिति का वर्णन किया है। इस स्थिति में जो आनन्द मिलता है वह अपना ही है क्योंकि स्वयं की आत्मा ही आनन्द स्वरूप है जो स्त्री के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है, अन्य से नहीं होती। स्त्री सहवास से केवल उसकी अभिव्यक्ति होती है। अतः यही स्थिति बिना सहवास के भी उस स्थिति का ध्यान करने से साधक उस ब्रह्मानन्द दशा में समाविष्ट हो सकता है।
(धारणा-४६) लेहनामन्थनाकोटैः स्त्रीसुखस्य भरात्स्मृतेः । शक्त्यभावेऽपि देवेशि भवेदानन्दसंप्लवः ।।६९।।
व्याख्या – यहाँ भगवान भैरव भैरवी से कहते हैं कि हे देवेशि! यह आनन्द स्वयं के ही भीतर है जो स्त्री के सहवास से प्रकट होता है। इस आनन्द की अभिव्यक्ति में स्त्री को कारण नहीं माना जा सकता कि आनन्द उसमें है। यह आनन्द स्त्री के अभाव में स्मृति की सहायता से भी होता है। अतः यह मानना पड़ेगा कि यह आनन्द स्वयं के भीतर ही है जैसे पूर्वानुभूत स्त्रीसुख का प्रयत्नपूर्वक स्मरण स्वयं करने पर भी व्यक्ति का मन आनन्द से भर जाता है जैसे अधर मधु का आस्वादन, परिचुम्बन, मन्थन, आलिंगन, पुनः पुनः मर्दन, नखक्षत, दन्तक्षत आदि का स्मरण करना। अतः स्त्री के अभाव में भी उनकी याद करने मात्र से व्यक्ति उसमें डूब जाता है और थोड़ी देर के लिए सब कुछ भूल जाता है अतः स्पष्ट है कि यह आनन्द अपना ही है जो स्त्री के अभाव में भी प्रकट हो सकता है। अतः साधक को चाहिए कि वह स्वरूपानन्द स्वाभाविक आनन्द की भावना करे और किसी बाह्य बन्धन का परित्याग कर दे। इस अभ्यास से साधक का चित्त आनन्द से सराबोर हो जाता है। ध्यानमात्र के अभ्यास से सभी बाह्य विषयों से विरक्ति हो जाती है इससे मनुष्य को आनन्द की अनुभूति होने लगती है। विषयों से विरक्त होना ही सुख का कारण बन जाता।
( धारणा-४७) आनन्दे महति प्राप्ते दृष्टे वा बान्धवे चिरात् । आनन्दमुद्गतं ध्यात्वा तैल्लयस्तन्मना भवेत् ॥ ७० ॥
व्याख्या-चिरकाल की प्रतीक्षा के बाद यदि अपनी प्रेमिका का सहवास मिल जाता है तो व्यक्ति के मन में आनन्द का सागर हिलौर लेने लगता है। यदि परम दरिद्र को एकाएक अपार धनराशि मिल जाये तो उसके आनन्द का पूछना ही क्या ! इसी प्रकार लम्बे समय से परदेश गये व्यक्ति के एकाएक घर लौट आने पर उसके परिवार वालों को अपार हर्ष होता है। आनन्द की इस प्रफुल्ल अवस्था को पकड़कर उसमें निरन्तर धारणा का अभ्यास करते रहने से साधक का चित्त उसी में लीन होकर तदाकार हो जाता है। वह अन्तर्मुख होकर उत्कृष्ट आनन्दमय दशा में विश्राम प्राप्त कर लेता है।
( धारणा-४८) जग्धिपानकृतोल्लासरसा नन्दविजृम्भणात् । भावयेद् भरितावस्थां महानन्दस्ततो भवेत् ।।७१।।
व्याख्या गहरी भूख को मिटाने के लिए जो कुछ खाया जाये तथा इसी तरह से गहरी प्यास को मिटाने के लिए जो कुछ शीतल पेय आदि पीया जाय, उसमें भोजन के प्रत्येक ग्रास तथा पान के प्रत्येक घूँट से शरीर में सन्तोष, पुष्टि और भूख प्यास की निवृत्ति में तीन कार्य अवश्य होते हैं। इससे शरीर में उल्लास, रस और आनन्द का आविर्भाव होता है इसी को उल्लास कहा गया है। भोजन और पान से स्थूल, सूक्ष्म व सूक्ष्मतम नाड़ियों का सूखापन दूर होकर उनमें स्निग्धता का संचार होता है, उसको रस कहते हैं। भोजन पान से ही इनमें रस का संचार होता है जिनसे एक अनोखे सुख की अनुभूति होती है। यह सुख ही स्वात्म स्वरूप की अनुभूति की याद दिला देता है। उस भरितावस्था में अर्थात् आनन्द से परिपूर्ण स्थिति में एकाग्रचित्त से भावना करने पर मन परमआनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।
( धारणा-४९) गीतादिविषयास्वादासमसौख्यैकतात्मनः । योगिनस्तन्मयत्वेन मनोरूढ़ेस्तदात्मता ॥७२॥
व्याख्या- शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, श्रोत्र, त्वचा, आँख, जिह्वा तथा नासिका। ये पाँचों पाँच प्रकार के भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण करती हैं। ये विषय हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्थ इनमें श्रोत्र मधुर गान को ग्रहण कर आनन्दित होते हैं, त्वचा किसी कोमल वस्तु का स्पर्श करके आनन्दित होती है। आँख, किसी सुन्दर वस्तु को देखकर आनन्दित होती है। जिह्वा स्वादिष्ट रस को ग्रहण कर आनन्दित होती है तथा नासिका अच्छी गन्ध को सूँघकर आनन्दित होती है। ऐसा आनन्द मूर्ख से मूर्ख तथा ज्ञानी से ज्ञानी सभी व्यक्तियों में समान रूप से होता है। इस आनन्द को व्यक्त नहीं किया जा सकता किन्तु गूँगे के गुड़ की भाँति इसका सभी अनुभव करते हैं। यह आनन्द ही स्वचेतना का आनन्द है जिसका अनुभव कर प्रत्येक व्यक्ति का चित्त थोड़े समय के लिए एकाग्र हो जाता है और सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है। इस दशा में योगी जब एकाग्रदशा में अपने चित्त को अभ्यास के द्वारा तन्मय बना लेता है तो इस चित्त की स्थिरता के कारण उसमें अद्भुत शक्ति का संचार हो जाता है। चित्त की स्थिरता में ही शक्ति का संचार होता है जिससे आनन्द की अनुभूति होती है। यह आनन्द ही ब्रह्मरूपिता है इसमें स्थिर हो जाना ही ब्रह्म हो जाना है। जब तक चित्त में चंचलता बनी रहती है तब तक उसे कभी आनन्द की अनुभूति नहीं हो सकती। एकाग्र अवस्था में विषयों का विस्मरण हो जाता है तथा आनन्दमात्र ही शेष रह जाता है। इसी को अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होना कहा गया है क्योंकि यह आनन्द ही निज का स्वरूप है जो सत् व चित्त के साथ-साथ आनन्दस्वरूप भी है। इसलिए तन्त्र छोड़ने की बात नहीं कहता उपलब्धि की बात कहता है कि जो आनन्द मनुष्य का स्वभाव ही है उसे प्राप्त कर उसी में तन्मय हो जाना यही उपलब्धि है। वेदान्त भी उपलब्धि की बात कहता है कि जो प्राप्त ही है उससे जानना मात्र है। जो दुःखों को छोड़ने की बात करते रहते हैं किन्तु आनन्द प्राप्ति की बात नहीं करते। जिसे आनन्द नहीं मिला वे ही रात-दिन दुःखों के ही रोने रोते रहते हैं किन्तु आनन्द प्राप्ति के बिना दुखों का अन्त नहीं हो सकता। आनन्द का अभाव ही दुखों का कारण बन जाता है। अतः तन्त्र इस आनन्द में ही स्थिर होने की बात कहता है। वही ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
( धारणा ५० ) यत्र यत्र मनस्तुष्टिर्मनस्तत्रैव धारयेत् । तत्र तत्र परानन्दस्वरूपं संप्रवर्तते ॥७३॥
व्याख्या- जहाँ जहाँ मन को तुष्टि मिलती है वहीं वहीं मन जाता रहता है। तुष्टि का अर्थ मन के उल्लास से है, क्षोभ से नहीं। पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों के विषयों की ओर मन सदा रमता रहता है। किन्तु मन को नियन्त्रण में रखकर उसे उत्तम विषयों की ओर लगाना चाहिए। मन पर नियन्त्रण न रखकर यदि वह नाना प्रकार के विकल्पों से क्षुब्ध हो जाता है तो योगी अपनी योगारूढ़ दशा से गिर जाता है। काम, क्रोध आदि के क्षोभ को शान्त करके ही योगी अपने मन को स्थिर कर सकता है। अतः मन जिस जिस मनोहर व सुन्दर वस्तु की ओर जाता है उसमें वहीं स्थिर करने का अभ्यास करे तथा यह कल्पना करें कि यह सुन्दर वस्तु मेरा ही स्वरूप है जो आनन्दमय शिव रूप ही है, यह सब मेरी ही विभूति है तथा मेरा ही स्वरूप सर्वत्र स्पन्दित हो रहा है, मेरे से भिन्न कुछ भी नहीं है। किसी भी व्यक्ति का चित्त, किसी भी वस्तु में लग जाता है तो वह उसी की ओर आकर्षित होकर भागने लगता है व अन्य सभी बातों को भूल जाता है। उसी स्थिति को केन्द्रबिन्दु बनाकर जब योगी भावना के अभ्यास से मन को स्थिर कर देता है तो उसकी परम आनन्दमय स्वात्म स्वरूप में प्रतिष्ठा हो जाती है। यही उसकी योग की प्रतिष्ठा है। जो मुमुक्षु साधक है उसे किसी सुन्दर वस्तु को देखकर मन को पवित्र रखे, उसे मलिन न होने दे। मुक्त पुरुष का तो मन समाधिरत रहता है उसमें क्षोभ उठता ही नहीं है। अतः साधक को इसकी ओर ध्यान रखना चाहिए। क्षोभ के शान्त हो जाने को ही परमपद कहा जाता है। जब चित्त में किसी प्रकार का स्पन्दन ही नहीं होता कोई हलचल नहीं होती समाधि की यही अवस्था परम गति है। इसी बात को तन्त्र ग्रन्थों में कई स्थानों पर कहा गया है।
( धारणा ५१ ) अनागतायां निद्रायां प्रणष्टे वाह्यगोचरे । सावस्था मनसा गम्या परा देवी प्रकाशते ।।७४ ।।
व्याख्या – जब मनुष्य सोने लगता है तो नींद से पहले एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें नींद भी नहीं आई किन्तु उसे इसका भी भान नहीं होता कि मैं जगा हुआ हूँ। उसे बाह्य वस्तुएँ दिखना भी बन्द हो जाता है। जब ध्यान में भी ऐसी ही स्थिति बन जाये कि वह ध्यान में इतना गहरा चला जाये कि उसे बाहर की वस्तुएँ आँखें खुली रहने पर भी न दिखाई दें, इस स्थिति को लाने का साधक को अभ्यास करना चाहिए। इससे साधक का मन निर्विकल्प हो जाता है बाह्य विकल्पों की प्रतीति समाप्त हो जाती है, इस स्थिति को परावस्था कहा जाता है जो जाग्रत व स्वप्न के बीच की अवस्था जैसा है। इसमें साधक का परादेवीयमय स्वरूप भासित होने लगता है।
( धारणा ५२ )तेजसा सूर्यदीपादेराकाशे शबलीकृते । दृष्टिर्निवेश्या तत्रैव स्वात्मरूपं प्रकाशते ।।७५||
व्याख्या-दिन में सूर्य के प्रकाश से, रात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश से तथा घर में दीपक के प्रकाश से जो स्थान प्रकाशित है उनमें ध्यान करने से तथा दृष्टि को स्थिर करने से योगी को स्वात्म स्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाती है। ध्यान को किसी भी स्थान पर केन्द्रित किया जाये उसके थोड़े अभ्यास से ही बाहरी दृश्य विलीन हो जाने पर अपने आत्मा के प्रकाश को दिखाई देना आरम्भ हो जाता है। वह भीतर जो प्रकाश दिखाई देता है वह आत्मा का ही प्रकाश है इसका ज्ञान हो जाता है।
( धारणा-५३) करङ्किण्या क्रोधनया भैरव्या लेलिहानया । खेचर्या दृष्टिकाले च परावाप्तिः प्रकाशते ॥७६।।
व्याख्या—तन्त्र ग्रन्थों में पाँच प्रकार की मुद्राएँ प्रसिद्ध हैं वे हैं करंकिणी, क्रोधना, भैरवी, लेलिहाना, और खेचरी करंकिणी मुद्रा सारे संसार को संज्ञाशून्य देखती है क्रोध से भरी मुद्रा क्रोधना कहलाती है। भैरवी दृक् शक्ति है। सब को चाट जाने में लगी मुद्रा लेलिहाना है और दूर आकाश तक फैली मुद्रा खेचरी कही जाती है। ये मुद्राएँ जब अपने अपने काम में लग जाती हैं तो उनमें परादेवी का प्रकाश आलोकित हो उठता है। इस स्थिति में जो साधक इन मुद्राओं की अपने में भावना करता है उसका निष्कला देवी से अभेद स्थापित हो जाता है। करंकिणी मुद्रा के साधक ज्ञानसिद्ध कहलाते हैं। क्रोधनी मुद्रा के साधक मन्त्र सिद्ध कहलाते हैं। भैरवी मुद्रा के साधक मेलाप सिद्ध कहलाते हैं तो लेलिहाना मुद्रा के साधक शाक्त सिद्ध कहलाते हैं खेचरी मुद्रा के साधक शांभव सिद्ध कहलाते हैं। इन पाँचों मुद्राओं को साधने की विधि आगे के पाँच श्लोकों में बतायी गयी है।
( धारणा-५४) मुद्वासने स्फिजेकेन हस्तपादौ निराश्रयम् । निधाय तत्प्रसङ्गेन परा पूर्णा मतिर्भवेत् ॥७७।।
व्याख्या – ध्यान साधना के लिए बैठते समय आसन का उपयुक्त होना आवश्यक है। जिस आसन पर बैठना हो वह न अधिक ऊँचा हो, न अधिक नीचा हो तथा वह सख्त भी न हो अन्यथा शरीर को स्थिर करना कठिन होता है। आसन वस्त्र का हो, मृगचर्म का हो अथवा ऊन का हो वह कोमल होना चाहिए जिस पर बैठने से कष्ट न हो। उस आसन पर इस प्रकार बैठना चाहिए कि साधक का आधा शरीर ही उस आसन पर टिका रहे तथा हाथ और पाँवों को ढीला छोड़ दे। पतंजलि ने अपने योग दर्शन में कहा है कि ‘स्थिर सुखमासनम्’ जिस पर स्थिरतापूर्वक सुख से बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। इस सुखमय स्थिति में बैठकर ही ध्यान करने में मन स्थिर रहता है। कोमल आसन पर बैठने से शरीर को विश्राम मिलता है जिससे उसकी चंचलता दूर होती है। मन की चंचल वृत्ति को रोकने के लिये आसन के उपयुक्त होने से बुद्धि स्थिर रहती है जो ध्यान में आवश्यक है।
( धारणा ५५) उपविश्यासने सम्यग् बाहू कृत्वाऽर्ध कुञ्चिती। कक्षव्योम्नि मनः कुर्वन् शममायाति तल्लयात् ।।७८॥
व्याख्या- उपयुक्त आसन पर बैठकर अपने बाजुओं को थोड़ा तिरछा करके समेटकर उनको अपनी काँख के पास सुविधापूर्वक आराम से टिका दें। इस स्थिति में परम विश्रान्ति का अनुभव होता है। इस विश्रान्ति दशा में एकाग्रता बढ़ाने से यह मुद्रा सिद्ध हो जाती है और मन उसी स्थिति में लीन हो जाता है। मन के शान्त होने से ही को अपने आत्मस्वरूप का अनुभव हो जाता है। जब तक मन में कई प्रकार के विकल्प उठते रहते हैं तभी तक मन अशान्त बना रहता है तथा इसी अशान्त अवस्था के कारण ही स्वात्म स्वरूप को नहीं जाना जा सकता। जब तक बर्तन का जल हिलता रहता है तब तक चन्द्रमा का बिम्ब उसमें नहीं दिखाई पड़ता। अतः सारे प्रयत्न मन को शान्त स्थिति में जाने के लिए ही किये जाते हैं।
( धारणा-५६) स्थूलरूपस्य भावस्य स्तब्धां दृष्टिं निपात्य च । अचिरेण निराधारं मनः कृत्वा शिवं व्रजेत् ।।७९।।
व्याख्या- किसी भी स्थूल पदार्थ पर बिना पलक झपके एकटक दृष्टि डाले। इस प्रकार का अभ्यास करते रहने से मन अन्तर्मुख हो जाता है तथा उसका बाह्य स्वरूप लुप्त हो जाता है उसको बाह्य स्वरूप का आभास ही नहीं होता। इस एकाग्र अवस्था में वह साधक सभी चिन्ताओं से मुक्त हो जाता उसे शिवभाव की प्राप्ति हो जाती है। यह त्राटक का ही प्रयोग है।
( धारणा-५७) मध्यजिह्वे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम् । होच्चारं मनसा कुर्वस्ततः शान्ते प्रलीयते ॥८॥
व्याख्या – इस श्लोक में खेचरी मुद्रा को सिद्ध करने की बात कही गयी है कि अपने मुँह को फैलाकर जिह्वा को उलटकर तालु प्रदेश में ले जाने से खेचरी मुद्रा बनती है। इस मुद्रा में अपने मन को स्थिर करके स्वररहित हकार का उच्चारण करने से साधक शान्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। सामान्यतया श्वास छोड़ते समय हं का उच्चारण होता है तथा श्वास को भीतर लेते समय सः का उच्चारण होता है। इस प्रकार हंसः, सोहं का स्वाभाविक उच्चारण होता रहता है इसी को अजपा गायत्री कहते हैं किन्तु खेचरी सकार का उच्चारण नहीं हो पाता अतः उस समय हकार का उच्चारण होता रहता है। इस मुद्रा में खेचरी मुद्रा में अपनी दृष्टि को भूमध्य में स्थिर करना चाहिए। इस मुद्रा को खेचरी मुद्रा कहा जाता है। इसी से प्राण और अपान की गति में समता आती है। प्राणों को स्थिर करने से एकाग्रता सिद्ध होती है, जिससे आत्मानुभव होता है।
( धारणा – ५८) आसने शयने स्थित्वा निराधारं विभावयन् । स्वदेहं मनसि क्षीणे क्षणात् क्षीणाशयो भवेत् ।।८१ ।।
व्याख्या- किसी अति कोमल गद्दी आदि पर शयन करने से शरीर हल्का हो जाता है तथा उसमें आनन्द अनुभव होता है। इस आनन्द की स्थिति में वह अपने शरीर का ही विस्मरण कर जाता है। इस स्थिति में चित्त की सारी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं जिससे चित्त निराधार हो जाता है। इस अवस्था में योगी ऐसी भावना करे कि मैं देह नहीं हूँ, मेरा देह नहीं है तथा जो आनन्द मुझे मिल रहा है वही मेरा स्वरूप है इस तरह की भावना का निरन्तर अभ्यास करने से योगी की निराकार भावना दृढ़ हो जाती है उसे अपने शरीर की भी विस्मृति हो जाती है जिससे उसकी सारी वासनाएँ क्षणभर में शान्त हो जाती हैं।
( धारणा ५९) चलासने स्थितस्याथ शनैर्वा देहचालनात् । प्रशान्ते मानसे भावे देवि दिव्यौघमाप्नुयात् ||८२ ||
व्याख्या- इस श्लोक में भगवान् भैरव, भैरवी को चित्त को शान्त करने की एक और विधि बताते हुए कहते हैं कि हे देवी! किसी गतिमान् सवारी पर बैठकर चलने से जैसे उसके चलने के साथ-साथ शरीर भी आगे पीछे हिलता रहता है। उसी प्रकार अपने शरीर को जानबूझकर उसी प्रकार हिलाने अथवा किसी चलासन पर बैठे बिना भी अपने शरीर को उसी प्रकार हिला लें जैसे वह किसी चल आसन जैसे बैलगाड़ी, घोड़ा, रथ, हाथी आदि पर बैठने पर हिल रहा हो। इस प्रक्रिया के अभ्यास से मन की सत्ता क्षीण होने लगती है व एक अनोखे सुख का अनुभव होने लगता है इससे चित्त की वृत्ति क्षीण हो जाती है तथा चित्त के विलीन होने पर साधक को दिव्य लोकों में निवास करने वाले परम योगियों के तेजोमय स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है, अर्थात् उसका ज्ञानमय और आनन्दमय स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है।
( धारणा ६० ) लीनं मूर्ध्नि वियत्सर्वं भैरवत्वेन भावयेत् । तत्सर्वं भैरवाकारं तेजस्तत्त्वं समाविशेत् ।।८३।।
व्याख्या – जिस प्रकार यह सर्वसंहारक कालरूप भैरव जगत् के सभी पदार्थों को अपने में समेटे हुए हृदय, ब्रह्मरन्ध्र आदि सभी स्थानों में विद्यमान है उसी प्रकार योगी यह कल्पना करे कि यह सारा जगत् आकाश के रूप में अथवा अन्धकार के रूप में हृदय, ब्रह्मरन्ध्र आदि प्रमुख स्थानों में विद्यमान है। इस भावना के अभ्यास से अन्ततः सभी पदार्थ भैरवस्वरूप प्रकाशमय परमतत्त्व में समाविष्ट हो जाते हैं अर्थात् इस संसार में जो भी पदार्थ हैं वे सब शिवमय हैं, शिव से अभिन्न हैं ऐसी भावना करने से योगी के चित्त में ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है।
( धारणा – ६१ ) किञ्चिज्ज्ञातं द्वैतदायि बाह्यालोकस्तमः पुनः । विश्वादिभैरवं रूपं ज्ञात्वाऽनन्तप्रकाशभृत् ।। ८४ ।।
व्याख्या-सृष्टि में यह भैरव ही चैतन्य स्वरूप है जो जाग्रत अवस्था में वैश्वानर कहा जाता है जिससे भेद दृष्टि रहती है। वही चैतन्य स्वप्नावस्था में ‘तेजस’ रूप में रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में वही ‘प्राज्ञ’ अवस्था में रहता है। तुरीय अवस्था में वही चैतन्य ‘भैरव रूप’ में रहता है। यह इसी भैरवरूपी चैतन्य का ही सर्वविध विकास है। इस प्रकार जान लेने पर साधक योगी अनन्त प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार यह विश्व, तेजस, प्राज्ञ एवं चेतन आदि सब उस ब्रह्म का ही विस्तार है जो परभैरव स्वरूप है।
( धारणा-६२) एवमेवदुर्निशायां कृष्णपक्षागमे चिरम् । तैमिरं भावयन् रूपं भैरवं रूपमेष्यति ।।८५||
व्याख्या- परभैरव का ही अत्यन्त भयंकर स्वरूप तिमिररूप अर्थात् अन्धकार रूप माना जाता है इसलिए कृष्णपक्ष की घनघोर काले बादलों से भरी रात्रि में चिरकाल तक इस अन्धकार स्वरूप की भावना करे। इस भयंकर अन्धकारमय स्वरूप में अपनी धारणा को केन्द्रित करे। इसी को तिमिर भावना कहा गया है। यह परभैरव का ही अत्यन्त भयंकर स्वरूप माना जाता है। इसमें भावना को स्थिर करने पर योगी को भैरव स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् उसमें अक्षय आनन्द की अभिव्यक्ति हो जाती है तथा सभी प्रकार के सांसारिक भय समाप्त हो जाते हैं। इस भावना का अभ्यास करते समय योगी अपनी आँखों को खुला रखता है।
( धारणा-६३) एवमेव निमील्यादौ नेत्रे कृष्णाभमग्रतः । प्रसार्य भैरवं रूपं भावयंस्तन्मयो भवेत् ||८६||
व्याख्या – इस श्लोक में निमीलन भावना को बताया गया है कि आँख बन्द करके इस भावना का अभ्यास किया जाता है। कृष्ण पक्ष की घनी अँधियारी रात के न होने पर साधक को चाहिए कि वह अपनी आँखें बन्द करके और अपने सामने भयानक घने काले अन्धकार की भावना करे। इस भावना का अभ्यास बढ़ाने पर उसकी आँखें खोल देने के बाद भी भगवान् भैरव का यह भयंकर रूप ही भासित होता रहता है। अन्ततः उसकी भयंकरता समाप्त हो जाती है और अत्यन्त आश्चर्यजनक प्रकाशमय भैरव स्वरूप की प्रतीति होने लगती है।
( धारणा-६४) यस्य कस्येन्द्रियस्यापि व्याघाताच्च निरोधतः । प्रविष्टस्याद्वये शून्ये तत्रैवात्मा प्रकाशते ॥ ८७।।
व्याख्या-ये इन्द्रियाँ बाहर की ओर ही देखती हैं इसलिए इनको विषय ही दिखाई देते हैं जिससे ये इन विषयों के भोग में ही रस लेने लगती हैं, इनमें रस लेने के कारण ये अपने वास्तविक स्वरूप को ही विस्मृत कर जाती हैं। ये बाह्य विषय इसलिए सुखप्रद प्रतीत होते हैं कि इनको अपने भीतर के वास्तविक सुख का अनुभव ही नहीं हुआ है। जब इनको भीतर के सुख का अनुभव हो जाता है तो ये बाह्य सुख अपने आप छूट जाते हैं, इनको छोड़ना नहीं पड़ता।किन्तु इस आन्तरिक सुख की प्राप्ति के लिए इन बाह्य सुखों को छोड़ना पड़ता है। इन विषयों से जब सम्पर्क छूट जाता है तो ये विषय इन इन्द्रियों को आकर्षित नहीं कर सकते। यह सम्पर्क दो प्रकार से छूटता है। या तो बाह्य विरोधी पदार्थों के कारण इनसे सम्पर्क छूट जाता है अथवा क्षीण हो जाता है जैसे धार्मिक भावना दृढ होने पर यौन आकर्षण कम हो जाता है अथवा दब जाता है अथवा किसी विकृति के कारण उनमें रस ही नहीं आता अथवा प्रयत्नपूर्वक इन्द्रियों को रोक दिया जाता है। इन दोनों ही विधियों से इन्द्रियों का बाह्य विषयों से सम्पर्क छूट जाता है तो साधक अन्तर्मुख हो जाता है। उसकी द्वैत दृष्टि दब जाती है तथा उसमें अद्वय तत्त्व का उन्मेष होने लगता है। वह सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व का दर्शन करने लगता है। बाह्य विषयों के छूट जाने से इन्द्रियाँ शून्यत्व का अनुभव करने लगती हैं। इस शून्यत्त्व की भावना को दृढ़ करने पर साधक का वह स्वात्म स्वरूप प्रकाशित हो उठता है।
( धारणा-६५) अबिन्दुमविसर्गं च अकारं जपतो महान् । उदेति देवि सहसा ज्ञानौघः परमेश्वरः ||८८||
व्याख्या – इस श्लोक के विद्वानों ने कई अर्थ किये हैं। एक अर्थ यह किया गया है कि अं और अः इन दोनों स्वरों के बिन्दु और विसर्ग को छोड़कर जो कि पूरक और रेचक प्राणायाम के प्रतीक हैं, कुम्भक प्राणायाम में स्थित होकर केवल अकार का जप करने वाले योगी के चित्त में सहसा परमेश्वर प्रकट हो जाते हैं जिससे चित्त में ज्ञान के उदय होने से सभी विकल्पों का नाश हो जाता है। संचित विकल्पों का नाश हो जाने से और नये विकल्पों की उत्पत्ति न होने से परमेश्वर के ज्ञानमय स्वरूप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचा रहता। अतः इस धारणा के अभ्यास से साधक ज्ञानस्वरूप हो जाता है।
( धारणा-६६) वर्णस्य सविसर्गस्य विसर्गान्त चितिं कुरु निराधारेण चित्तेन स्पृशेद् ब्रह्म सनातनम् ।।८९।।
व्याख्या – जिस प्रकार वर्णमाला का प्रथम स्वर अकार है इसी प्रकार सृष्टि का प्रथम तत्त्व शिव है। इस अंकार में जो बिन्दु अं है वह शून्य स्वरूप है तथा अः में जो विसर्ग है वह भेद पैदा करने वाला है। अतः इस बिन्दु और विसर्ग को छोड़कर केवल अकार स्वरूप अर्थात् अद्वैत स्वरूप परमेश्वर है अतः उसी की उपासना करने से साधक ज्ञानस्वरूप हो जाता है। ऐसा इससे पूर्व धारणा में बताया गया है। किन्तु इस श्लोक में बताया गया है कि अं और अः में बिन्दु और विसर्ग में से अकार को निकाल देने पर केवल बिन्दु (.) और विसर्गः ही बच रहते हैं। बिना आधार (अकार ) के इनको समझ पाना कठिन है। योगी जब इनमें धारणा करते हुए अपने चित्त को भी इसी तरह निराधार निर्विषय बना देते हैं तो उसको परम निर्वृत्ति (मोक्ष) प्राप्त हो जाती है। पहले श्लोक में बिन्दु और विसर्ग से रहित अकार में धारणा का अभ्यास और इस श्लोक में अंकार रहित बिन्दु अथवा विसर्ग में धारणा का विकास बताया गया है। इन दोनों में यही भेद है।
(धारणा-६७)व्योमाकारं स्वमात्मानं ध्यायेद् दिग्भिरनावृतम् । निराश्रया चितिः शक्तिः स्वरूपं दर्शयेत् तदा ।।१०।।
व्याख्या- किसी दृश्य पदार्थ में तो धारणा को स्थिर किया जा सकता है किन्तु वह परमात्मा तो निराकार है शून्य स्वभाव है तथा वहीं स्वात्मस्वरूप है उसमें धारणा को कैसे स्थिर किया जाये तथा उसकी सत्ता को कैसे स्वीकार किया जाये कि उसका अस्तित्व है? इसके लिए जिस प्रकार आकाश भी शून्य स्वरूप है तो भी उसकी भी सत्ता को स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार वह परमात्मा भी शून्य स्वभाव वाला होते हुए भी उसकी सत्ता है इसे कई प्रयोगों व प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है, उसमें भी धारणा को स्थिर करने की बात कही गयी है। वह किसी भी प्रकार की आकृति से रहित होते हुए भी मिथ्या नहीं है। वह सभी प्रकार की उपाधियों से रहित होते हुए भी वही विश्वव्यापी चेतना है जो अपने भीतर आत्मरूप में अवस्थित है। इसमें धारणा को स्थिर करने पर यह चित्तिशक्ति बाह्य आलम्बनों से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर देती है अर्थात् साधक अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। वह अपने को शिव ही मानने लग जाता है। यहीं पर वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की घोषणा करता है।
( धारणा-६८) किञ्चिदङ्गं विभिद्यादौ तीक्ष्णसूच्यादिना ततः । तत्रैव चेतना युक्त्वा भैरवे निर्मला गतिः ।।९१।।
व्याख्या – यह भैरव बोधस्वरूप है जो चैतन्य है। इस चैतन्य स्वरूप का अनुभव करने के लिए अपने अंगूठे अथवा ऊँगली में काई तीक्ष्ण वस्तु सुई आदि चुभो दें तथा उससे जो पीड़ा होती है उसका अनुभव करें कि यह पीड़ा किसको हो रही है तथा इसका कारणतत्त्व क्या है? तो ज्ञात हो जायगा कि शरीर में यह जो चेतन तत्त्व है उसी के होने से यह पीड़ा हो रही है। इसकी अनुपस्थिति में पीड़ा नहीं हो सकती। अतः पीड़ा का अनुभव करने वाली चेतना ही है। साधक को इससे उस बोधभैरव का ज्ञान हो जाता है।
( धारणा-६९) चित्ताद्यन्तः कृतिर्नास्ति ममान्तर्भावयेदिति । विकल्पानामभावेन विकल्पैरुज्झितो भवेत् ||१२||
व्याख्या- इस सृष्टि में विभिन्न तत्त्व हैं जिनके विभिन्न संयोगों से विभिन्न प्रकार के शरीरों की रचना होती है। मनुष्य के शरीर में इन्हीं तत्त्वों के संयोगों से सर्वप्रथम अन्तःकरण की रचना होती है। इस अन्तःकरण में मन, बुद्धि व अहंकार की रचना होती है। अहंकार से ‘मैं पन’ का अनुभव होता है तथा मन से विचार उत्पन्न होते हैं अतः विचारों का नाम ही मन है। इस मन में कामना व वासना का उदय होता है जिसकी पूर्ति के लिए वह कर्म की ओर प्रवृत्त होता है तथा इन कर्मों का जो भी अच्छा बुरा फल होता है उसे भोगने के लिए वह बाध्य होता है जो उसके पुनर्जन्मों का कारण बन जाता है। अतः यह सारा मायाजाल अन्तःकरण के द्वारा मन से ही रचा जाता है जो उसके विचारों का ही रूप है जैसे उसके विचार होते हैं वैसा ही यह जगत् उसे दिखाई देने लगता है। यह जगत् कैसा है तथा इसका वास्तविक स्वरूप क्या है इसका इस मन को कुछ भी पता नहीं है। वह भोगों में ही लिप्त रहकर इसे जानने की चेष्टा भी नहीं करता। मन की भावना पूर्ति के कारण ही सूक्ष्म शरीर की रचना होती है इसी से स्थूल शरीर बनता है तथा ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों की रचना होती है। इन सबका कारण यह अन्तःकरण ही है। इसके वास्तविक स्वरूप को जानने के लिये इस श्लोक में कहा गया है कि ऐसी भावना करनी चाहिये कि इस शरीर में चित्त आदि अन्तःकरण की कोई सत्ता ही नहीं है तो फिर इस जगत् को जानने वाला कौन रहेगा क्योंकि सभी कुछ इस अन्तःकरण के द्वारा ही तो जाना जाता है। जब अन्तःकरण ही नहीं है तो संसार के विभिन्न रूपों को कौन जानेगा फिर बाह्य रूपों की सत्ता भी कैसे सिद्ध होगी? बाह्य रूपों के न रहने पर वह साधक निर्विकल्प अवस्था में प्रविष्ट हो जायगा। इससे संसार के विकल्पों के कारण वह संसार में भटक रहा है इन विकल्पों के अभाव में वह अपने ही आत्मस्वरूप में प्रविष्ट हो जायगा। यही उसका वास्तविक स्वरूप है जिसे प्राप्त कर वह शिवरूप ही हो जाता है।
( धारणा-७०) माया विमोहिनी नाम कलायाः कलनं स्थितम् । इत्यादिधर्मं तत्त्वानां कलयन्न पृथग् भवेत् ।।९३।।
व्याख्या – वेदान्त, सांख्य तथा तन्त्र की शब्दावली में थोड़ा अन्तर है। वेदान्त कहता है कि मायातत्त्व से मोहित होकर जीव एक दूसरे को भिन्न समझने लगता है। भेद दृष्टि का विस्तार करना माया का धर्म है। अन्यथा चेतन तत्त्व तो सबमें समान रूप से विद्यमान है। सांख्य दर्शन कहता है कि प्रकृति और पुरुष के विवेक ज्ञान से कैवल्य का आविर्भाव होता है। तन्त्र कला की बात कहता है कि कला का धर्म कुछ करना है तथा विद्यातत्व का धर्म कुछ जानना है। जब योगी इन सभी तत्त्वों पर विचार करता है तो उसकी स्थिति इनसे भिन्न नहीं हो सकती। किन्तु इन सबका विवेक करने पर वह अभेद ज्ञान से युक्त हो जाता है। उसकी भेददृष्टि समाप्त होकर वह अपने चैतन्य स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही अद्वैत की स्थिति है। इस प्रकार अद्वैत की धारणा करके योगी विभेदक तत्त्वों से अलग होकर कैवल्य स्वरूप को प्राप्त कर लेता है वह स्वात्म स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। जब तक योगी अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान लेता तब तक उसे भिन्नता ही ज्ञात होती रहेगी जिसका कारण उसका मन ही है जो मायाशक्ति से प्रभावित रहता है।
( धारणा-७१) झगितीच्छां समुत्पन्नामवलोक्य शमं नयेत् । यत एव समुद्भूता ततस्तत्रैव लीयते ।।९४ ।।
व्याख्या- यह चेतन तत्त्व ही निज का स्वरूप है जिसमे कोई कामना, वासना आदि नहीं है। वह शुद्ध चैतन्य स्वरूप है किन्तु माया शक्ति के क्षोभ के कारण उसमें विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। इन इच्छाओं में मुख्य है पुत्र, धन तथा यशप्राप्ति की इच्छाएँ। साधक जब अन्तर्मुखी हो जाता है तो उसे अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है तथा यह भी ज्ञात हो जाता है कि ये इच्छाएँ आत्मा से नहीं बल्कि मन के कारण पैदा हो रही हैं। ऐसा जानकर उन्हें वहीं रोक दें। इनको अविद्या मान लें जिससे सारी इच्छाएँ शान्त हो जाती हैं। जिस प्रकार समुद्र के शान्त होने पर लहरें उठना बन्द हो जाती हैं उसी प्रकार मन के शान्त होने पर उसमें वृत्तियाँ उठती ही नहीं हैं जिससे वे मन में ही पुनः विलीन हो जाती हैं। ये वृत्तियाँ जब विलीन हो जाती हैं तो केवल वह स्वात्मस्वरूप ही शेष रह जाता है जिससे योगी ब्रह्म ही हो जाता है। ये सारी इच्छाएँ, वासनाएँ आदि केवल मन की ही उपज हैं। मन के शान्त होने पर योगी आत्मस्वरूप ही हो जाता है।
(धारणा-७२) यदा ममेच्छा नोत्पन्ना ज्ञानं वा कस्तदाऽस्मि वै ।तत्त्वतोऽहं तथा भूतस्तल्लीनस्तन्मना भवेत् ।।१५।।
व्याख्या- इच्छाएँ मन से ही जाग्रत होती हैं। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति हेतु कर्म होते हैं तथा कर्मों को भोगने के लिए ही बार-बार जन्म धारण करना पड़ता है। यदि इच्छा ही न उठे तो कर्म भी नहीं होंगे तथा इच्छा व कर्मों के न होने से मन का कोई कर्म ही नहीं रहेगा तथा मन के न रहने पर मेरा स्वरूप क्या होगा? मनुष्य मन को ही अपना स्वरूप समझता है किन्तु मन के न रहने पर ज्ञान व कर्म तो नहीं होंगे किन्तु वह आत्मा तो विद्यमान रहेगी ही तथा मनुष्य का वही तो वास्तविक स्वरूप है जिसे भूलकर वह मन ही अपना स्वरूप मान बैठा था। अतः साधक को सदा इसी की भावना करनी चाहिए कि मैं मन, बुद्धि, ज्ञान, क्रिया, इच्छा, रूप नहीं बल्कि चैतन्य मात्र हूँ जो आनन्दस्वरूप है। इस भावना से वह चिदानन्द स्वरूप में ही लीन हो जाता है, वह वही हो जाता है।
(धारणा-७३) इच्छायामथवा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत् । आत्मबुद्धयाऽनन्यचेतास्ततस्तत्त्वार्थदर्शनम् ।।९६।।
व्याख्या- इच्छा, ज्ञान और क्रिया ये सभी मन के धर्म हैं। मन के रहते ये तीनों विद्यमान रहेंगे ही। जगत् का सारा स्वरूप इसी का विस्तार है। इन्हीं से चित्त में अनेक वृत्तियाँ उठती हैं जिनसे संसार के सभी सुख दुख प्राप्त होते हैं। अतः ये तीनों ही संसार का मूल हैं। इन्हीं में धारणा को स्थिर करके जान लेना चाहिए कि ये मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। मैं तो आत्मा हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ तथा यह आत्मा ही ब्रह्म है, अयमात्मा ब्रह्म। ऐसी भावना दृढ़ हो जाने पर योगी को परमार्थ तत्त्व का ज्ञान हो जाता है कि मैं वही हूं।
( धारणा-७४) निर्निमित्तं भवेज्ज्ञानं निराधारं भ्रमात्मकम् । तत्त्वतः कस्यचिन्नैतदेवंभावी शिवः प्रिये ।।१७।।
व्याख्या- भगवान् भैरव यहाँ फिर भैरवी से कहते हैं कि हे प्रिये! संसार में ये जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सभी भ्रमात्मक हैं जो भ्रम के कारण ही सत्य जैसे भासते हैं जिनकी कोई वास्तविकता सत्ता नहीं है। ये न पहले थे, न बाद में ही रहेंगे। ये सभी बनते बिगड़ते रहते हैं इसलिए इनको सत्य मान लेना भ्रम ही है। सत्य तो वही है जो शाश्वत है। जो सदा से है व सदा रहेगा। वही इन सबका आधार है अतः वही सत्य है। इन जागतिक पदार्थों का कोई हेतु भी नहीं है कि ये क्यों बनें व इनके निर्माण का उद्देश्य क्या है। ये सभी निर्निर्मित है। ये सभी माया के कारण उत्पन्न हैं अन्यथा सभी कुछ चैतन्य ही है, उससे भिन्न किसी की सत्ता नहीं है। भ्रमवश ही इनकी सत्ता को स्वीकार कर लिया जाता है अन्यथा यह मिथ्या कल्पना मात्र है। ऐसा ज्ञान होने पर साधक स्वयं शिवरूप ही हो जाता है क्योंकि वह भी उस चैतन्य शिव का ही एक रूप मात्र है। सत्ता तो चैतन्य की ही है अन्य सभी उसके विभिन्न रूप मात्र हैं।
( धारणा-७५) चिद्धर्मा सर्वदेहेषु विशेषो नास्ति कुत्रचित् । अतश्चयं तन्म सर्वं भावयन् भवजिज्जनः ।।१८।।
व्याख्या – सभी प्राणी चित् धर्म वाले हैं अर्थात् यह चेतन तत्त्व सभी प्राणियों में विद्यमान है। चींटी से लेकर हाथी तक सभी प्राणियों के शरीरों में वही एकमात्र चेतनतत्त्व है जिससे सभी प्राणी जीवित रहते हैं। इस चेतनतत्त्व में कोई भिन्नता नहीं है कि छोटे जानवरों में अलग चेतना होती है बड़ों में अलग तथा मनुष्यों में अलग। चेतना चेतना में कोई भिन्नता नहीं होती अतः यह कहा जा सकता है कि सभी प्राणी चेतनस्वरूप ही हैं। शरीरों की भिन्नता से चेतन में भिन्नता नहीं आती। यह चेतनतत्त्व ब्रह्म ही है इसलिए यह कहा जा सकता है कि सभी प्राणियों में वही ब्रह्म विद्यमान है। साधक को इसी कारण इसी की भावना करना चाहिये कि सभी कुछ चैतन्य ही है तथा चैतन्य से भिन्न किसी की सत्ता नहीं है। ऐसी भावना करने से उसे अद्वैत का अनुभव हो जाता है तथा इसी अनुभव के कारण वह संसार सागर से तर जाता है। यह द्वैत भाव ही संसार में भटकाता रहता है। तथा यही सभी दुखों, रोग, शोक का कारण बनता है। यह चैतन्य तत्त्व प्राणियों में ही नहीं स्थावर जंगम आदि सभी मूर्तियों में समान रूप से विद्यमान है। अज्ञानी व्यक्ति इस चेतना को भी सबमें भिन्न-भिन्न मानते हैं तथा कुछ व्यक्ति ही नहीं बल्कि कुछ धर्म तो प्रत्येक मनुष्य की आत्मा (चेतना) को भी भिन्न भिन्न मानते हैं। यही अज्ञान अवस्था है। अन्तःकरण भिन्न-भिन्न है आत्मा नहीं।
(धारणा-७६) कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यगोचरे । बुद्धिं निस्तिमितां कृत्वा तत्तत्त्वमवशिष्यते ।।९९।।
व्याख्या- यह मन ही वासनाग्रस्त है। वासना इसका निज धर्म है। वासना के कारण ही इसका जन्म व पुनर्जन्म होता है तथा वासना पूर्ति के लिये ही यह नाना प्रकार के षडयन्त्र करता रहता है। इसकी सारी वृत्तियाँ वासनापूर्ति के कारण ही बनती हैं तथा इन्हीं के कारण वह जीवन में कभी सुख से जीवनयापन नहीं कर सकता। ये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य इसकी वासनापूर्ति के ही औजार हैं जिनका उपयोग करके वह अपनी वासना की पूर्ति करता है। यदि मन में कोई वासना ही नहीं है तो वह इस जंजाल में उलझेगा ही नहीं। वह शान्तावस्था में अपना जीवनयापन करेगा। ऐसा व्यक्ति ही ईश्वर के समीप होता है। अन्य धर्म इन काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, ईर्ष्या, द्वेष आदि छोड़ने की बात करते हैं किन्तु ये सब वासना के कारण होते हैं जो मनुष्य का वास्तविक स्वरूप नहीं है। यदि अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाय तो वासना का उदय होगा ही नहीं। अतः अपने वास्तविक स्वरूप को ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए तन्त्र इस नई विधि की बात कहता है कि इन काम, क्रोध आदि में चित्त की वृत्तियाँ ही हैं। इनमें से जो उत्कट चित्तवृत्ति है उसमें अपनी धारणा को स्थिर करें। उसको देखते रहें एक में धारणा के स्थिर हो जाने पर अन्य वृत्तियाँ दब जायेंगी तथा क्षीण हो जायेंगी। इसके बाद साधक को अपने आत्मस्वरूप के चिन्तन में लग जाना चाहिये जिससे यह वृत्ति भी शान्त हो जायेगी। अच्छा प्राप्त होने पर ही बुरा छूटता है बुरे को सीधा नहीं हटाया जा सकता। अतः साधक को अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का ही प्रयत्न करना चाहिये तभी इन वृत्तियों से छुटकारा मिल सकता है। जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को भीतर समेट लेता है उसी प्रकार वह योगी इन सभी वृत्तियों को अपने भीतर समेटकर सुखी होता है। जब साधक का बोध जाग्रत हो जाता है तो बाह्य विषयों से उसका सम्पर्क टूट जाता है तभी उस का स्वात्मस्वरूप प्रकट होता है।
(धारणा-७७) इन्द्रजालमयं विश्वं न्यस्तं वा चित्रकर्मवत् । भ्रमद्वा ध्यायतः सर्वं पश्यतश्च सुखोद्गमः ।।१०।।
व्याख्या – जिसे सत्य का ज्ञान नहीं है वे असत्य को ही सत्य मानकर संसार में जी लेते हैं किन्तु जिन्हें सत्य का ज्ञान हो गया वे कभी असत्य को स्वीकार नहीं कर सकते। • जिनको अपने आत्मतत्त्व का ज्ञान हो गया जिन्होंने सृष्टि के शाश्वत तत्त्व को जान लिया वे इस जगत् के सत्यस्वरूप को स्वीकार नहीं कर सकते जिन्हें उच्च का ज्ञान नहीं वे निम्न स्थिति को ही स्वीकार करने को बाध्य होते हैं। अतः ज्ञानियों और अज्ञानियों की दृष्टि में अन्तर तो रहता ही है जिन्होंने उस परमतत्त्व को नहीं जाना वे इस संसार को ही सत्यमानकर भोगों में ही लिप्त रहते हैं किन्तु जिन्होंने उस परमतत्त्व को जान लिया कि वहीं एकमात्र सत्य तत्त्व है, अन्य सभी भ्रमवश ही सत्य जैसे भासते हैं जिनमें कोई सार नहीं है। यह दृष्टिभ्रम मात्र है। जिस प्रकार एक जादूगर चित्र विचित्र वस्तुएँ दिखाता है जो वास्तव में दिखाई तो देती है किन्तु सत्य नहीं होती। भ्रमवश ही दिखाई देती हैं। ज्ञानी की दृष्टि में यह संसार भी ऐसा ही भ्रमस्वरूप है जो सत्य जैसा भासता है किन्तु वैसा है नहीं। अज्ञानी के इसे सत्य मान लेने से यह सत्य नहीं हो जाता। यह इन्द्रजाल के समान ही सत्य जैसा दिखाई देता है। ज्ञान होने पर यह मिथ्या ही सिद्ध होता है। जिस प्रकार किसी पर्दे पर चित्र विचित्र दृश्य बने होते हैं किन्तु वास्तव में वे सत्य नहीं होते। जिस प्रकार सिनेमा में पर्दे पर कई दृश्य दिखाई तो देते हैं किन्तु वे सत्य नहीं होते भ्रम पैदा करते हैं कि वे वास्तविक हैं ऐसा ही यह जगत् है। जिसे आत्मतत्त्व का ज्ञान हो गया वह उसी में अपने ध्यान को केन्द्रित कर उसके मन में सुख का आविर्भाव हो जाता है। वह फिर जगत् के मिथ्या भ्रम में नहीं पड़ता जिस प्रकार नाव में बैठे व्यक्ति को समीप के वृक्ष आदि चलते हुए ज्ञात होते हैं जो भ्रममात्र है वैसे ही ज्ञानी ही इस जगत् को मिथ्या कह सकता है जिसे अज्ञानी सत्य मान बैठा है।
धारणा-७८) न चित्तं निक्षिपेद् दुःखे न सुखे वा परिक्षिपेत् । भैरवि ज्ञायतां मध्ये किं तत्त्वमवशिष्यते ॥१०१।।
व्याख्या – यहाँ भगवान् शिव फिर भैरवी से कहते हैं कि हे भैरवी! ये सुख और दुःख सभी अन्तःकरण अथवा मन के धर्म हैं। सुख दुःखों का अनुभव केवल मन का होता है जिसका कारण मन की वासना ही है। वासना की पूर्ति होने पर यह मन सुखी होता है तथा पूर्ति न होने पर यह दुःखी होता है। इन दोनों के मध्य में जो चेतन तत्त्व है उसे इन सुख दुःखों का अनुभव नहीं होता। अतः सुख दुःख के विषय में न सोचकर अपेन चित्त को दोनों के मध्य जो चेतन तत्त्व है उसमें स्थापित करें जो इन दोनों का साक्षी है। योगी को इसी चैतन्यतत्त्व में अपने ध्यान को केन्द्रित कर देना चाहिए। इसी एकाग्रता से योगी को भैरव स्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाती है।
( धारणा-७९) विहाय निजदेहास्थां सर्वत्रा स्मीति भावयन् ।दृढ़ेन मनसा दृष्टया नान्येक्षिण्या सुखी भवेत् ||१०२||
व्याख्या – मनुष्य को केवल अपने ही शरीर में आस्था रहती है कि मैं ही हूँ तथा दूसरा मेरे से भिन्न है। ऐसी भावना केवल शरीरों को देखकर होती है जो अपने आत्म स्वरूप को नहीं जानते इसलिए उनमें मैं भाव पैदा होता है कि मैं ही सब कुछ हूँ। यह मैं भाव ही राग, द्वेष, सुख दुःख आदि सबका कारण बन जाता है। इस मिथ्या धारणा का त्याग कर साधक को यह सोचना चाहिये कि मैं शरीर मात्र नहीं बल्कि उसमें स्थित चैतन्य आत्मा हूँ जो सभी प्राणियों के शरीरों में समान रूप से व्याप्त है। वही मेरा वास्तविक स्वरूप होने से सर्वत्र मैं ही हूँ। मेरे से भिन्न कुछ भी नहीं है। इस भावना का अभ्यास करे। संशयरहित चित्त से इसका दृढ़ अभ्यास करके अपने इस चैतन्य स्वरूप में स्थिर हो जाय तथा अन्य को अपने से भिन्न मानने की झूठी प्रतीति से मुक्त हो जाय तो इसी धारणा से योगी सुखी हो सकता है। जब तक व्यक्ति अपने को सबसे भिन्न मानता रहेगा। तब तक वह सौ जन्म में भी सुखी नहीं हो सकता।
( धारणा-८०) घटादौ यच्च विज्ञानमिच्छाद्यं वा ममान्तरे । नैव सर्वगतं जातं भावयन्निति सर्वगः ||१०३।।
व्याख्या- बाह्य जगत् में जो भी घट आदि पदार्थ दिखाई देते हैं वे सदा सर्वत्र सभी अवस्थाओं में दिखाई देते हैं तथा मैं इसे देखता हूँ ये दोनों विचार ही भ्रामक हैं। ये सभी विचार मन से ही पैदा होते हैं जिनका चेतना से कोई सम्बन्ध नहीं है। मन ही विभिन्न प्रकार की कल्पनाएँ करता रहता है जिनका अधिक मूल्य नहीं होता। अतः वे सब निःसार हैं। मन की कल्पना को सत्य मान लेने का कोई औचित्य नहीं है। अतः इनकी शून्यरूप में भावना करने पर योगी सर्वत्र व्याप्त हो जाता है अर्थात् वह स्वात्मा में ही प्रतिष्ठित हो जाता है। जब तक वह बाह्य पदार्थों को ही सत्य मानता रहेगा तब तक उसे सत्य का बोध नहीं हो सकता।
( धारणा-८१) ग्राह्यग्राहकसंवित्तिः सामान्या सर्वदेहिनाम् । योगिनां तु विशेषोऽयं सम्बन्धे सावधानता ।। १०४ ।।
व्याख्या—संसार के सभी प्राणी इस बात को जानते हैं कि कौन सी वस्तु ग्राह्य है अर्थात् ग्रहण करने योग्य है तथा उसका ज्ञान जिसे होता है वही उसका ग्राहक होता है, उसे ग्रहण करता है। जो वस्तु ग्राह्य नहीं है उसे कोई भी ग्रहण नहीं करता। इसमें ज्ञान में कोई भेद नहीं है क्योंकि सभी का ज्ञान एक समान है। वह वस्तु के सत्यासत्य का निर्णय न करके उसकी उपयोगिता को ही देखकर उसे ग्रहण करता है। सभी की एक ही दृष्टि रहती है किन्तु इसमें योगियों की ही विशेषता है कि वे ग्राह्य और ग्राहक के सम्बन्धों के प्रति अधिक सावधान रहते हैं। वे सत्य और असत्य में भेद कर देते हैं। वे समझते हैं कि मैं वह प्रकाशस्वरूप चैतन्य हूँ तथा मेरे से भिन्न जो कुछ भी ज्ञेय है वे सभी अनित्य हैं जो असत् है। इसी भावना का ध्यान रखकर वे किसी ग्राह्य वस्तु को ग्रहण करते हैं। उसे सदा सत् व असत् वस्तु का ज्ञान बना रहता है।
( धारणा-८२) स्ववदन्यशरीरेऽपि संवित्तिमनुभावयेत् । अपेक्षां स्वशरीरस्य त्यक्त्वा व्यापी दिनैर्भवेत् || १०५ ||
व्याख्या – यह चेतन तत्त्व एक ही है जो सभी प्राणियों के स्थूल शरीरों में समान रूप से व्याप्त है। यही चेतन तत्त्व सभी प्राणियों के ज्ञान का आधार है। यह ज्ञान शरीरों के माध्यम से ही प्रकट होता है। साधक को ऐसी भावना करनी चाहिये कि चेतना मेरे शरीर में है वही चेतना दूसरे व्यक्ति के शरीर में भी व्याप्त है, दोनों में कोई भेद नहीं है। इस प्रकार के विचार को दृढ़ करें। मनुष्य शरीर नहीं बल्कि आत्मस्वरूप ही है अतः सभी आत्माएँ मेरा ही स्वरूप है, मेरे से भिन्न कुछ भी नहीं है, ‘सब मेरा ही रूप है’ ऐसी भावना दृढ़ हो जाने पर वह अपने शरीर से मोह नहीं करता। यही विदेह मुक्ति की स्थिति है। इस स्थिति के प्राप्त होने पर वह सभी शरीरों को अपना ही मानता है उनमें भेद नहीं करता। उसमें परकाया प्रवेश की सिद्धि प्राप्त हो जाती है जिससे वह अपनी आत्मा को किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर उन भोगों को भोग सकता है। यदि उसकी आत्मचेतना को किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट करा देता है तो उसमें सबको अपने वश में कर लेने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है, यह उसकी वशीकार सिद्धि है तथा जिस वस्तु की चाह उसके मन में पैदा होती है वह पूरी हो जाती है। जब एक आत्मा किसी दूसरे के जीवित शरीर में प्रवेश कर जाती है तो वह उससे अपनी इच्छानुसार कार्य करवा लेती है। ऐसी उच्च आत्माएँ निम्न श्रेणी की आत्माओं में ही प्रविष्ट हो सकती है। दुष्ट आत्माएँ दुष्ट श्रेणी के व्यक्तियों में ही प्रविष्ट होकर उनसे दुष्ट कार्य करवाती हैं। किसी मृत व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट होकर योगी उसके भोगों को भी भोग सकता है। शंकराचार्य का उदाहरण है कि उन्होंने राजा अमरूख के शरीर में प्रविष्ट होकर काम को भोगा था। शकराचार्य का जीवन वृत्त – शंकर दिग्विजय लेखक: नन्दलाल दशोरा उपलब्ध है। भाव यह है कि जिस योगी को अपने शरीर की अपेक्षा को छोड़ देने पर वह सभी शरीरों को अपना ही स्वरूप समझ ले तथा ऐसी भावना दृढ़ हो जाय तो वह किसी भी दूसरे शरीर में प्रविष्ट होने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। ऐसा योगी थोड़े ही दिनों में सर्वव्यापी हो जाता है। वह सभी सांसारिक दोषों से मुक्त हो जाता है। योगी को अपने शरीर की ममता छोड़ देनी चाहिए तभी वह सर्वव्यापक हो सकता है। शरीर के प्रति मोह रहने पर ही वह उसे नहीं छोड़ना चाहता अन्यथा कोई कष्ट नहीं होता।
( धारणा-८३) निराधारं मनः कृत्वा विकल्पान्न विकल्पयेत् ।तदात्मपरमात्मत्वे भैरवो मृगलोचने ।।१०६ ।।
व्याख्या—भगवान् भैरव यहाँ भैरवी से कहते हैं कि हे मृगनयनी! मनुष्य किसी न किसी आलम्बन को पकड़कर ही जीवित रहता है। बिना किसी आलम्बन या सहारे के वह रह ही नहीं सकता। यह आलम्बन ही उसका बन्धन बन जाता है। निरालम्ब होने में उसको भय लगता है किन्तु यहाँ भैरव भैरवी से कहते हैं कि यह आलम्बन ही जीवात्मा का स्वरूप है अतः इन सभी आलम्बनों का त्यागकर मन को निरालम्ब कर देना चाहिए। फिर मन में किसी भी प्रकार के संकल्प विकल्प नहीं उठने देना चाहिए। ऐसी स्थिति बन जाने पर फिर जो शेष बच रहता है वही चैतन्यस्वरूप भैरव है। जब मन में संकल्प विकल्प उठते रहते हैं वही जीवभाव है तथा निर्विकल्प दशा ही ब्रह्मभाव है। अतः साधक को चाहिये कि सभी विकल्पों का परित्याग कर ब्रह्मभाव में, परभैरव स्वरूप में समाविष्ट होने के लिए सतत् इस धारणा का अभ्यास करता रहे।
( धारणा-८४) सर्वज्ञः सर्वकर्ता च व्यापकः परमेश्वरः । स एवाहं शैवधर्मा इति दाढर्याच्छिवो भवेत् ।। १०७।।
व्याख्या – इस श्लोक में धारणा के लिये बताया गया है कि साधक ही यह धारणा दृढ़ होनी चाहिये कि वह परमेश्वर शिव सर्वज्ञ है सभी कुछ जानने वाला है वही सर्वकर्ता है अर्थात् सृष्टि में जितनी भी क्रियाएँ हो रही हैं उसका कर्ता वही है तथा वही सर्वव्यापक है। सृष्टि के कण-कण में वही व्याप्त है। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जिसमें वह न हो। वही शिवधर्म वाला मैं हूँ अर्थात् ये सभी धर्म स्वात्मरूप से मेरे में विद्यमान हैं अतः में भी उसी शिवरूप वाला हूँ। ऐसी दृढ़े भावना करने पर साधक स्वयं शिवरूप ही हो जाता है।
( धारणा-८५) जलस्येवोर्मयो वह्नेर्ज्वालाभङ्गयः प्रभा रवेः । ममैव भैरवस्यैता विश्वभङ्गयो विभेदिताः ।।१०८।।
व्याख्या – इस श्लोक में धारणा की एक अन्य विधि बतायी गयी है कि जिस प्रकार जल में लहरें जल से भिन्न नहीं हैं जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला अग्नि से भिन्न नहीं है तथा जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सूर्य से भिन्न नहीं है उसी प्रकार यह विश्व शिव से भिन्न नहीं है बल्कि उसी के विभिन्न रूपमात्र हैं। उसी प्रकार मैं भी भैरव स्वरूप ही होने से ये सभी विविधताएँ मेरे से ही प्रकट हो रही हैं। ऐसा निश्चय दृढ़ हो जाने पर साधक पूरे विश्व को अपना ही स्वरूप मानने लग जाता है। भिन्नता की जो प्रतीति अज्ञानवश है वह सब मिट जाती है तथा वह स्वयं शिवरूप ही हो जाता है।
( धारणा-८६) भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा शरीरेण त्वरितं भुवि पातनात् । क्षोभशक्तिविरामेण परा संजायते दशा ||१०९।।
व्याख्या—यहाँ धारणा की एक और विधि बतायी गयी है कि अपने ध्यान को केन्द्रित करने के लिए इसका उपयोग करे। जिस प्रकार बालक चक्करघानी खाते समय तेजी से घूमता है उसी प्रकार साधक अपने शरीर को तेजी से घुमावे तथा घूमते घूमते वह अपने शरीर को पृथ्वी पर गिरा दे। उस समय उसे सब कुछ घूमता हुआ नजर आयगा तथा थोड़ी देर के बाद उसे एक विचित्र शान्ति का अनुभव होगा। यह एक प्रकार की निर्विकल्प अवस्था है। इस स्थिति में अपनी धारणा को स्थिर करने पर साधक को अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति हो जाती है।
(धारणा-८७) आधारेष्वथवाऽशक्त्या ऽज्ञानाच्चित्तलयेन वा जातशक्तिसमावेशक्षोभान्ते भैरवं वपुः ।।११०।।
व्याख्या – जो ज्ञान के आधारभूत पदार्थ हैं, जिनसे ज्ञान प्राप्त हो सकता है अर्थात् आत्म चेतना को जाना जा सकता है उनमें ध्यान को केन्द्रित करने में असमर्थता के कारण यह ध्यान अन्य पदार्थों में जाता है जो अज्ञान का कारण है जिससे शरीर में चंचलता बनी रहती है व उसी से क्षोभ होता है। उसमें विराम लग जाने पर साधक को भैरवस्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। उसमें आनन्ददायक अवस्था का आविर्भाव हो जाता है। भाव यह है कि जब तक व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का ज्ञान नहीं हो जाता तभी तक वह अज्ञानजनित संसार के विषयों में भटकता रहता है। इस भटकाव में जब विराम लग जाता है तभी उसका चित्त आत्मा में स्थिर होता है। जब तक मन विषयों में ही भटकता रहता है तब तक आत्मज्ञान की कोई सम्भावना नहीं रहती। अज्ञान के कारण ही वह विषयों में भटकता रहता है।
( धारणा-८८) सम्प्रदायमिमं देवि शृणु सम्यग् वदाम्यहम् । कैवल्यं जायते सद्यो नेत्रयोः स्तब्धमात्रयोः ||१११।।
व्याख्या – मनुष्य को जब तक आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह संसारी पदार्थों को ही सत्य मानकर उन्हीं के भोगों में लगा रहता है। जब तक किसी श्रेष्ठ वस्तु का उसे ज्ञान नहीं हो जाता तब तक वह अश्रेष्ठ में ही सुख मानता रहता है। यही अज्ञान उसके सभी दुःखों का कारण बनता है। यह श्रेष्ठ वस्तु तो स्वयं की आत्मा ही है जिसको जानकर व्यक्ति परमानन्द की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। फिर उसको तुच्छ वस्तुओं को भोगने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है। महल मिल जाने पर झोंपड़े में रहना कौन पसन्द करेगा। उस परमतत्त्व को जानने की जिज्ञासा ईश्वरानुग्रह से कुछ ही व्यक्तियों में होती है तथा किसी सद्गुरु के मिलने पर वह उसे जानकर अपने जीवन को धन्य बना देता है। इस विज्ञान भैरव ग्रन्थ में जो सभी धारणाएँ बताई गयी हैं उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करने से उस आत्मस्वरूप को सहज ही जाना जा सकता है तथा उसे जानकर यह जीव शिव ही हो जाता है। वह शिव तो है ही उसे जानना मात्र है। इस श्लोक में भगवान् भैरव फिर भैरवी से कहते हैं कि हे देवी! मैं उस धारणा की परम्परा का तुम्हें उपदेश कर रहा हूँ जिसका कि सही पद्धति से अभ्यास करने पर साधक अपने नेत्रों को विषयों की ओर से समेटकर अपने ध्यान को एकाग्र करके इस सारे जगत् के प्रपंच के भेद व अभेद रूपों को भूलकर अपनी अन्तरात्मा की ओर दृष्टि फेर लेने पर योगी तत्काल कैवल्य को प्राप्त हो जाता है वह किस भी परिस्थिति में हो वह अपने स्वात्म स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है यह सब मन की एकाग्रता से ही सिद्ध होती है। चित्त की एकाग्रता के बिना इस जगत् में श्रेष्ठता की कभी प्राप्ति नहीं हो सकती तथा इस एकाग्रता से ईश्वर तक की प्राप्ति भी असम्भव नहीं है।
( धारणा – ८९ ) कूपादिके महागर्ते स्थित्वोपरि निरीक्षणात् । अविकल्पमतेः सम्यक् सद्यश्चित्तलयः स्फुटम् ॥ ११२ ।।
व्याख्या-चित्त को एकाग्र करने की एक विधि यह भी है कि किसी गहरे कूप, खड्ढ आदि के पास खड़े होकर उसके नीचे देखें अथवा पर्वत के ऊँचे शिखर पर खड़े होकर ऊपर की ओर देखते रहने से एक अज्ञात भय की कल्पना होती है जिससे शरीर रोमांचित हो उठता है तथा चित्त निर्विकल्प स्थिति में प्रविष्ट हो जाता है। मन में अन्य किसी प्रकार की कल्पना नहीं उठती। जब उसका चित्त इस निर्विकल्प दशा में पहुँच जाता है तो एक क्षण के लिये उसे बड़ी शान्ति का अनुभव होता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इस शान्त अवस्था में किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं रह जाती जिससे उसका भैरव स्वरूप ही भासित होने लगता है जिससे शिव का शान्त स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है।
( धारणा -९०) यत्र यत्र मनो याति वाह्ये वाऽऽभ्यन्तरेप्रिये । तत्र तत्र शिवावस्था व्यापकत्वात् क्व यास्यति ॥११३॥
व्याख्या – भगवान् भैरव यहाँ फिर भैरवी से कहते हैं कि हे प्रिये! यह सम्पूर्ण सृष्टि शिव के प्रकाश से ही प्रकाशित है अतः सब शिव स्वरूप ही है। शिव से भिन्न कुछ भी नहीं है। वही शिव सृष्टि के विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रहा है। यह शिव और शक्ति, जड़ और चेतन, प्रकृति और पुरुष दो भिन्न तत्त्व नहीं हैं बल्कि एक ही परमतत्त्व के दो रूपमात्र हैं। भिन्नता की प्रतीति अज्ञान के कारण ही होती है। जब उसे प्रत्यक्ष कर लिया जाता है तो यह अज्ञातजनित भ्रान्ति मिटकर यह सम्पूर्ण जगत् शिव स्वरूप ही ज्ञात होने लगता है। शिव से भिन्न कुछ भी नहीं है। इसलिए हे देवी! जहाँ जहाँ मन जाता है चाहे वह बाह्य पदार्थों में जावे अथवा स्वयं के भीतर के विषयों में सुख, दुःख आदि में जावे सभी में उस चैतन्य स्वरूप शिव ही प्रकशित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में वह मन उसके सिवा ओर कहाँ जा सकता है। अर्थात् इस जगत् में शिव से भिन्न कुछ भी नहीं है। ऐसी कोई वस्तु या स्थान नहीं है जहाँ वह न हो। वेदान्त में तो यह मायातत्त्व है जो ईश्वर को परिच्छिन्न कर देता है किन्तु तन्त्र तो ऐसे किसी तत्त्व को स्वीकार ही नहीं करता जो उस शिव के प्रकाश को परिच्छिन्न कर दें। अतः सभी को शिवरूप ही समझकर धारणा का अभ्यास करने पर वह स्वात्मस्वरूप स्वयं ही प्रकाशित हो जाता है। इसमें मन को बाह्य वस्तुओं से खींचकर उसे अन्तरात्मा में लगाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि जहाँ जहाँ मन जाता है वहीं उसे लगाकर उसी स्थिति में स्थिर कर देना चाहिये। वहीं शिवावस्था विकसित हो जायेगी। यही समाधि अवस्था है। जब चित्त अखण्ड आत्मा में, अद्वय स्वरूप ब्रह्म में स्थिर हो जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं। योग ग्रन्थों में समाधि के भी कई भेद बताये गये हैं जैसे साविचार और निर्विचार, सवितर्क और निवितर्क, सम्प्रज्ञात ओर असम्प्रज्ञात, सविकल्प और निर्विकल्प तथा सबीज और निर्बीज आदि। इस निर्बीज समाधि को ही अन्तिम माना गया है।
( धारणा-९१) यत्र यत्राक्षमार्गेण चैतन्यं व्यज्यते विभोः । तस्य तन्मात्र धमित्वाच्चिल्लयाद् भरितात्मता ।।११४।।
व्याख्या – जिस प्रकार आँख के द्वारा जो बाह्यपदार्थ दिखाई देते हैं अथवा भीतर सुख दुःख का जो अनुभव होता है वह सब उस आत्मस्वरूप चैतन्य के कारण ही ज्ञात होते हैं जो उसी सर्वव्यापक परभैरव के ही चैतन्य का प्रकाश है जो जगत् रूप में दिखाई देता है। अतः इस सम्पूर्ण जगत् को उस चैतन्य का प्रकाश ही मानना चाहिए। जिस प्रकार जल ही जमकर बर्फ का रूप ले लेता है अतः जल व बर्फ में कोई भेद नहीं है उसी प्रकार यह चैतन्य ही सृष्टि का रूप लेता है। इन पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह भी चैतन्य के ही कारण होता है। यदि चैतन्य तत्त्व न हो तो इन सबको जानने वाला कौन रहेगा? अतः जो जानने वाला है तथा जो जाना जाता है वह सब उस चैतन्य से भिन्न नहीं है। ऐसी भावना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उस विभु के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है वही सब कुछ है। ऐसा विचार करते-करते साधक परमतत्त्व में लीन हो जाता है जिससे उसका यह परभैरव स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है। इस अवस्था में उसे यह बोध हो जाता है कि यह सारा विश्व में ही हूँ।
( धारणा – ९२ ) क्षुताद्यन्ते भये शोके गहरे वा रणाद् द्रुते । कुतूहले क्षुधाद्यन्ते ब्रह्मसत्ता समीपगा ||११५||
व्याख्या-मनुष्य उस चैतन्य स्वरूप आनन्द का ही स्वरूप है। आनन्द से भिन्न उसकी कोई सत्ता ही नहीं है किन्तु यह आनन्द इस जीवभाव के अज्ञान के कारण परिच्छिन्न हो गया है किन्तु कभी-कभी यह आनन्द स्वाभाविक रूप से अपने आप प्रकट हो जाता है। यदि आनन्द होता ही नहीं तो वह कहाँ से प्रकट होता। जैसे छींक आने के बाद अथवा भय, शोक आदि भावों के उत्पन्न होने पर गड्ढे में गिर पड़ने पर, युद्ध से भाग जाने पर अथवा किसी आश्चर्यजनक घटना के घटने पर अथवा भूख प्यास आदि तीव्र संवेगों की निवृत्ति हो जाने पर मनुष्य को एक क्षण के लिये ब्रह्मानन्द सरीखे आनन्द का अनुभव होता है अतः ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर उस आनन्द की स्थिति में जो लीन हो जाता है तो उसे उस चैतन्य स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। जो प्रबुद्ध साधक है वह इसका लाभ उठाकर इस आनन्द में लीन हो जाता है किन्तु जो अप्रबुद्ध है वह इससे वंचित ही रहता है।
( धारणा -९३) वस्तुषु स्मर्यमाणेषु दृष्टे देशे मनस्त्यजेत् । स्वशरीरं निराधारं कृत्वा प्रसरति प्रभुः ॥ ११६||
व्याख्या – मनुष्य में कई प्रकार की स्मृतियाँ जागती रहती हैं। इन स्मृतियों का आधार पुराने अनुभव होते हैं। इन स्मृतियों को छोड़कर इनके जो आधार पुराने अनुभव हैं उन पर अपने ध्यान को केन्द्रित करना चाहिये कि इन अनुभवों का कारण क्या है ये सभी अनुभव उस चैतन्य के कारण ही होते हैं। चेतना के बिना शरीर को कोई अनुभव नहीं हो सकता। जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को छोड़कर उसको फिर याद ही नहीं करता उसी प्रकार साधक को अपने शरीर के प्रति जो आस्था है उसका त्याग करके इन स्मृतियों के आधारभूत जो अनुभव है उन्हीं पर ध्यान केन्द्रित करने से उस चैतन्य स्वरूप का ज्ञान हो जाता है कि ये सभी अनुभव उस चैतन्य के कारण ही जीव को होते हैं। इस धारणा के अभ्यास से वह चैतन्य में ही प्रविष्ट हो जाता है।
( धारणा-९४) क्वचिद्वस्तुनि विन्यस्य शनैर्दृष्टि निवर्तयेत् । तज्ज्ञानं चित्तसहितं देवि शून्यालयो भवेत् ॥ ११७।।
व्याख्या—यहाँ भैरव फिर भैरवी से कहते हैं कि हे देवी! जिस किसी पदार्थ को देखो तो इसका ध्यान रखो कि ये सब पदार्थ मन के संकल्प के कारण अथवा पूर्व के अनुभवों के आधार पर वासनाओं के कारण ही सत्य जैसे प्रतीत हो रहे हैं किन्तु वास्तव में ये शून्यरूप ही हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। ये सत्य जैसे भासते हैं जो भ्रममात्र हैं जब संकल्प, अनुभव व वासना का ही अभाव हो जाता है तो वह वस्तु किस आधार पर टिकी रह सकती है। वस्तु का स्वरूप इन तीनों-संकल्प, अनुभव व वासना के ही आधार पर टिका हुआ है अन्यथा वह शून्य स्वरूप ही है। ऐसी भावना करने पर साधक शून्य स्वरूप ही हो जाता है। वह मानने लग जाता है कि सारा विश्व शून्य स्वभाव ही है जो आकाश के समान रूपहीन हैं। इसका कोई स्वरूप नहीं है न इसका कोई अस्तित्व ही है। केवल अपने भीतर के शुद्ध चैतन्य का ही एकमात्र अस्तित्व है अन्य सभी भ्रम से ज्ञात होते हैं।
( धारणा – ९५) भक्त्युद्रेकाद् विरक्तस्य यादृशी जायते मतिः । सा शक्तिः शाङ्करी नित्यं भावयेत् तां ततः शिवः ||११८ ।।
व्याख्या-जिस भक्त में भक्ति के उद्रेक से अर्थात् उसकी अधिकता से विरक्ति पैदा होकर मन शान्त हो गया है साधक का चित्त भक्त के चित्त में समाहित जाता है उसमें जिस तरह की बुद्धि उत्पन्न होती है वह शांकरी शक्ति कही जाती है अर्थात् ईश्वर के अनुग्रह से भक्त के हृदय में ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि वह सब कुछ भूलकर ईश्वर के चिन्तन में ही लगा रहता है भक्त की इस मानसिक दशा में अपने चित्त को लीन करने वाला साधक भी शिवमय हो जाता है।
( धारणा -९६) वस्त्वन्तरे वेद्यमाने शनैर्वस्तुषु शून्यता । तामेव मनसा ध्यात्वा विदितोऽपि प्रशाम्यति ॥ ११९।।
व्याख्या- जब साधक को किसी एक वस्तु के चैतन्य स्वरूप होने का ज्ञान हो जाता है तो उसे उससे भिन्न अन्य वस्तुओं में भी इसका अभ्यास करना चाहिये जिससे उनमें भी शून्यता का बोध हो जाय। इस साधक में अभेद ज्ञान की प्रतीति हो जाती है कि सभी पदार्थ चैतन्यस्वरूप ही हैं। ऐसा ज्ञान होने पर उसका ब्रह्मस्वरूप प्रकट हो जाता है।
धारणा ९७ ) किञ्चिज्जैर्या स्मृता शुद्धिः साऽशुद्धिः शम्भुदर्शने। न शुचिर्ह्यशुचिस्तस्मान्निर्विकल्कः सुखी भवेत् ।।१२० ।।
व्याख्या—धर्म शास्त्रकारों ने शरीर शुद्धि पर सर्वाधिक बल दिया है किन्तु परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार करने में यह शुद्धि सहायक नहीं होती अतः इसको अशुद्धि ही माननी चाहिये। तन्त्र शास्त्रों में इसे चित्त की निर्मलता में कारण नहीं माना है कि शरीर के शुद्ध हो जाने से चित्त भी शुद्ध हो जायगा। शरीर शुद्धि मन को पवित्र नहीं कर सकती इसलिए शैव शास्त्रों में इस तरह की शुद्धि को अशुद्धि ही माना है, यह वास्तविक शुद्धि नहीं है। शुद्ध मन ही ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। शरीर की शुद्धि के बिना भी ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। मालिनी विजय तन्त्र में बताया गया है कि शुद्धि और अशुद्धि का विधान भक्ष्य और अभक्ष्य का निरूपण, द्वैत या अद्वैत का उपदेश लिंग पूजा आदि का विधान या निषेध, निष्परिग्रह या सपरिग्रह होने का विधान, जटा भस्म आदि को स्वीकार या परित्याग व्रत आदि का आचरण करना या न करना, क्षेत्र संन्यास लेकर नियमों का पालन करना या न करना, तिलक आदि चिन्ह, नाम, गोत्र आदि को रखना या न रखना, जैसी बातों के बारे में पक्ष या विपक्ष में कुछ भी नहीं कहा जाता है ये सब साधक की इच्छा पर निर्भर है कि वह इनका आचरण करे या न करे तत्त्वज्ञान में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए योगी को अपने चित्त को स्थिर करना चाहिये। जिस योगी का चित्त परमतत्त्व में स्थिर हो गया है यह विषयों का उपभोग करता हुआ भी उनके दोषों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे कि जल में रहते हुए भी कमल पत्र उससे निर्लिप्त रहता है। ये सब नियम संयम उनके लिए हैं जो व्यक्ति बहिर्मुख बना रहता है जिस प्रकार विष्टा से भरा घट ऊपर से चमचमाता हुआ भी पवित्र नहीं होता। उसी प्रकार बाहरी नियमों से मन पवित्र नहीं हो जाता। योगी इस नश्वर शरीर की चिन्ता नहीं करता। सभी स्नानों में मानस स्नान को ही सर्वोत्तम माना गया है। इसी से भगवत् प्राप्ति होती है। ये सब कर्मकाण्ड ज्ञान प्राप्ति में बाधक भी हैं। मनुष्य दिन रात इन्हीं में उलझा रहता है जिससे उसकी चित्त को स्थिर करने का अवसर ही नहीं मिलता।
( धारणा-९८) सर्वत्र भैरवो भावः समान्येष्वपि गोचरः । न च तद्व्यतिरेकेण परोऽस्तीत्यद्वया गतिः ।।१२१।।
व्याख्या- सभी स्थानों में तथा सभी पदार्थों में इसे एक ही चैतन्यस्वरूप भैरव का ही स्पष्टरूप से भान होता है कि वही भाव स्वभाव वाला है तथा वही सत्स्वरूप है। उससे भिन्न किसी की सत्ता नहीं हो सकती। वही भाव स्वरूप है जो बौद्धों के शून्य जैसा नहीं है क्योंकि शून्य से सृष्टि की रचना नहीं हो सकती। इस बात को जो सामान्यजन है, जो विवेकहीन है वे भी स्पष्टरूप से जानते हैं। जो कहता है मैं जानता हूँ मैं करता हूँ तो यह मैं’ भाव ही चैतन्य का स्वरूप है। चेतना के बिना कौन कह सकता है कि मैं हूँ। यह जो सृष्टि में सारा ज्ञान है वह उस चैतन्य के ही कारण है अन्यथा चैतन्य के बिना ज्ञान का कोई आधार ही नहीं है अतः यह सब कुछ चैतन्य के ही विभिन्न रूप मात्र हैं तथा चह चैतन्य ही एकमात्र सत् तत्त्व है, उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। जिस साधक को ऐसा ज्ञान हो जाता है उसे अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। द्वैत भाव ही अज्ञान है जो सत्य नहीं है। अतः जिसे हम परमेश्वर कहते हैं वह अहं स्वरूप ही है। उस चैतन्य के बिना अहं कहने वाला और कौन सा तत्त्व है? अतः चैतन्य ही सब कुछ है। फिर उस चैतन्य को कहाँ खोजना है? जिस प्रकार सूर्य से ही सब प्रकाशित होते हैं सूर्य को कौन प्रकाशित कर सकता है। उसी प्रकार चेतन से ही सब जाने जाते हैं। चेतन को कौन जान सकता है? इस प्रकार निरन्तर विचार करते रहने वाला साधक स्वयं चेतनस्वरूप शिव ही हो जाता है जो स्वयं प्रकाश है। उस चैतन्य का जो स्वरूप आँखों के सामने है उसे खोजने में अन्य किस उपाय की आवश्यकता है?
( धारणा ९९ ) समः शत्रौ च मित्रे च समो मानावमानयोः । ब्रह्मणः परिपूर्णत्वादिति ज्ञात्वा सुखी भवेत् ॥१२२||
व्याख्या- जीवन में सुखी होने का एक ही राज है कि सभी में एक ही ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करना। यह भिन्नता वाली सभ्यता ही सभी दुःखों की जननी है। जिस संस्कृति में सदा भिन्नता की ही बातें कही जाती रही हैं उस संस्कृति से कोई न सुखी हो सका है न हो सकेगा। जहाँ भिन्नता है वहाँ राग, द्वेष, हिंसा, घृणा, वैमनस्य, लोभ, लालच, छीना झपटी आदि अनेक दुष्कर्म होते ही रहेंगे। दुःखों का ही राग अलापते रहने से आज तक कोई सुखी नहीं हो सका है। लोगों में यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हमारे धर्म को मानकर तुम सुखी हो सकते हो, किन्तु ये सभी दुकानदार की भाषा है जो अपना घटिया माल बेचने का दुष्प्रचार मात्र करते रहे हैं। धर्म कोई मुनाफा कमाने की दुकान नहीं है। अन्य किसी भाव को धर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस श्लोक में इसी अद्वैत की बात कही गयी है कि शत्रु और मित्र में सम्मान करने वाले तथा अपमान करने वाले सभी प्राणियों में वह स्वात्मरूप ब्रह्म ही विद्यमान है अतः सभी में एकत्व है। यह भिन्नता की भ्रान्ति अज्ञान के कारण है जो सभी दुःखों का कारण है। ऐसा जानकर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। गीता में भी कहा गया है कि विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण में, गाय में, हाथी, में, कुत्ते में जो समान दृष्टि रखता है तथा साथ ही शत्रु और मित्र को भी एक ही भाव से देखता है तथा सम्मान मिलने पर तथा अपमान होने पर भी जो हर्ष और विषाद में नहीं पड़ता वह सब तरह से सुखी हो जाता है वह परमानन्द से परिपूर्ण हो जाता है। वह यह जान लेता है कि सभी में एक ही चेतना व्याप्त है। शरीरों की भिन्नता तथा मन की भिन्नता से चेतना भिन्न नहीं हो जाती। मनुष्य चेतन ही है अतः भिन्नता की भावना ही अज्ञान है जिसको त्यागकर एकत्त्व को स्वीकार करना ही सुखी होने का उपाय है।
( धारणा – १०० ) न द्वेषं भावयेत् क्वापि न रागं भावयेत् क्वचित् । रागद्वेषविनिर्मुक्तौ मध्ये ब्रह्म प्रसर्पति ॥१२३।।
व्याख्या- सुख दुःख का कारण मन है। यह मन ही वासना ग्रस्त है इसी में अनेक प्रकार की इच्छाएँ पैदा होती रहती हैं। यह सुख दुःख आभासमात्र है वास्तविक नहीं है। सुख दुःख की परिभाषा है ‘अनुकूल वेदनीयं सुखम्, प्रतिकूल वेदनीयं दुखम्।’ यह मन जो वस्तु अपने अनुकूल है उसमें सुख मान लेता है तथा जो अपने प्रतिकूल है उसको देखकर दुःखी होता है। यह सुख दुःख चेतना में नहीं होता। अपेक्षा के कारण ही राग और द्वेष होता है जिसकी कोई अपेक्षा ही नहीं, वही राग द्वेष से मुक्त रहता है। इस राग और द्वेष के मध्य ही उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म की स्थिति है। जब तक राग और द्वेष है तब तक ईश्वर प्राप्ति सम्भव नहीं है। इन दोनों के मध्य में जो स्थित हो गया है अर्थात न तो राग से प्रभावित है, न द्वेष से इन दोनों से मुक्त होकर जो ब्रह्म को ही अपना स्वरूप मान लेता है वही ब्रह्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।
( धारणा १०१) यदवेद्यं यदग्राह्यं यच्छून्यं यदभावगम् । तत्सर्वं भैरवं भाव्यं तदन्ते बोधसम्भवः ।।१२४ ।।
व्याख्या- इस सृष्टि में एक ही ऐसा तत्त्व है जो इस समस्त दृश्यजगत् का मूल कारण है। कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता। यदि घट एक कार्य है तो मिट्टी उसका कारण है। यदि सृष्टि है तो उसका कारणतत्त्व अवश्य होना चाहिये। शून्य से किसी की रचना नहीं हो सकती किन्तु इस दृष्टि का वह कारणतत्त्व अतिसूक्ष्म है जिसे ये स्थूल इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती। वह जानने में भी नहीं आता क्योंकि मनुष्य की बुद्धि की पहुँच वहाँ तक नहीं है। वह मन व बुद्धि से परे है। मन व बुद्धि स्थूल को ही देख व जान सकती है, सूक्ष्म उससे छूट जाता है, उसकी पकड़ में नहीं आता। बुद्धि का दम्भ करने वाले वहाँ जाकर हताश हो जाते हैं उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगता जिससे वे उसकी सत्ता से ही इन्कार कर देते हैं कि ऐसा कोई तत्त्व है ही नहीं। किन्तु वह है जिसके होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। वही सत्तारूप में सर्वत्र विद्यमान है। वही परिपूर्ण सत्ता है। वह अति सूक्ष्म होने से उसे शून्य स्वरूप मान लिया गया है किन्तु वह शून्य अभावस्वरूप नहीं है बल्कि भावस्वरूप है। बुद्ध का शून्य अभावस्वरूप है किन्तु तन्त्र का शून्य वैसा नहीं है। वह सत्ता तत्त्व है उसी की सर्वस्वरूप भैरव के रूप में भावना करनी चाहिये। निरन्तर ऐसी भावना करते रहने से उसका सम्यक् बोध हो जाता है। इस पदार्थ को अवर्णनीय तथा अविज्ञेय होने से ही शक्ति मत में इसे शून्य कहा गया है अन्यथा यही परमसत्ता स्वरूप है ऐसी दृष्टि विकसित होने पर साधक स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है यही बात जो तन्त्र में कही गयी है उसी को उपनिषद् व गीता में भी कही गयी है। तैत्तिरीय उपनिषद् (३१४) में कहा गया है कि “जहाँ से मन और वाणी आदि सभी इन्द्रियाँ उसे न पाकर लौट आती हैं वह इस शरीर का भी आत्मा है।” इसी उपनिषद् (३१६) में कहा गया है “आनन्द ही ब्रह्म है, इस प्रकार जान। “कठोपनिषद् (२/२/१५) में कहा गया है ” जहाँ सूर्य प्रकाशित नहीं होता चन्द्रमा और तारे भी नहीं चमकते और न विद्युत ही चमकती है, फिर उस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशमान होते ही सब कुछ प्रकाशित हो जाते हैं और उसके प्रकाश से ही सब कुछ भासता है। ” गीता (१५/६) में भी कहा गया है “जहाँ न सूर्य, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है वही मेरा परमधामइस स्थिति को प्राप्त करने वाला ही ब्रह्म हो जाता है।
( धारणा – १०२) नित्ये निराश्रये शून्ये व्यापके कलनोज्झिते । बाह्याकाशे मनः कृत्वा निराकाशं समाविशेत् ||१२५||
व्याख्या – यह शिवतत्त्व शून्य जैसा भासने पर भी अशून्य ही है। जिसकी सत्ता है। उसका स्थान शून्य ही है जिसमें वह निवास करता है इसको जानने के लिए साधक को इसका प्रयोग करना चाहिये। साधक अपने मन को इस शून्य आकाश में समाहित कर देखें कि यह भी नित्य है, बिना किसी आश्रय वाला है, शून्य स्वरूप है, जिसका कोई रूप, रंग, आकार आदि नहीं है यही सर्वत्र व्यापक है, यह भी कल्पनारहित है। इसका दूसरा कोई विकल्प नहीं है, ऐसी कोई अन्य वस्तु नहीं है जिससे इसकी तुलना की जा सके, यह निरपेक्ष सत्ता है जो किसी के सापेक्ष नहीं है आदि, वाले आकाश में अपने मन को स्थिर करके देखने का अभ्यास करे तो थोड़े समय बाद उसे इसका भान हो जाएगा कि यह आकाश शून्यस्वरूप भासता हुआ भी इसकी सत्ता है, यह अशून्य है। इसी प्रकार के अभ्यास से ही जाना जा सकता है कि वह शिवतत्त्व शून्यस्वभाव वाला नहीं है बल्कि शून्य जैसा भासते हुए भी सत्तास्वरूप है शून्याकाश में ही उसकी स्थिति है। ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। यह विकल्परहित है, कल्पनारहित है, आकाश की भाँति ही वह सर्वत्र व्याप्त है। शून्य आकाश में उसकी भावना दृढ़ करने पर उसकी सत्ता का आभास हो जाता है।
( धारणा – १०३) यत्र यत्र मनो याति तत्तत् तेनैव तत्क्षणम् । परित्यज्यानवस्थित्या निस्तरङ्गस्ततो भवेत् ।। १२६।।
व्याख्या—यह मन वासनाग्रस्त है अर्थात् वासना का नाम ही मन है। इसमें वासना की तरंगें उठती रहती हैं। इन तरंगों के उठते रहने से ही वह विषयों की ओर भी भागता रहता है। बन्दर की भाँति एक ही विषय से दूसरे पर छलांग लगाता रहता है। शान्त रहना इसका स्वभाव ही नहीं है। जिस प्रकार जल के हिलते रहने से उसमें चन्द्रमा का बिम्ब स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता उसी प्रकार मन की चंचलता के कारण ही आत्मा का अनुभव नहीं होता। आत्मा अर्थात् उस चैतन्यतत्त्व का अनुभव करने के लिए तन्त्र ने दो उपाय बताये हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है मन को स्थिर करना, उसकी इस चंचलता को रोकना। पहले धारणा संख्या ७३ में बताया गया है कि जहाँ जहाँ मन की इच्छा जाती है अपने मन को उसमें स्थिर कर देना चाहिये व अन्य सभी प्रकार के विषयों के संकल्प का परित्याग कर देना चाहिये तथा उसी में आत्मा की भावना करनी चाहिये। इससे भी मन स्थिर हो जाता । धारणा संख्या ९० में भी कहा गया है कि जहाँ-जहाँ मन जाता है वहीं इसका अभ्यास करना चाहिये कि सभी कुछ भैरवस्वरूप ही है, भैरव से भिन्न कुछ भी नहीं है, ऐसी भावना करनी चाहिये। उसे शिवस्वरूप ही मान लेना चाहिये कि सभी शिवस्वरूप ही हैं उसी से सब प्रकाशित है ऐसी धारणा करने से भी मन स्थिर हो जाता है। धारणा संख्या ९१ में भी यही कहा गया है कि जहाँ जहाँ विषयों में मन जाता है उनको चैतन्य स्वरूप ही मान लेना चाहिये क्योंकि चैतन्य से भिन्न किसी की सत्ता है ही नहीं इसलिए इनको चैतन्य स्वरूप मान लेने से आत्मा का अनुभव होने लगता है। किन्तु इस श्लोक में मन के निरोध की बात कही गयी है कि अपनी चंचलता के कारण मन जहाँ-जहाँ जाता है उन उन विषयों से उसको तत्काल हटा दें तथा यह मान लें कि इन विषयों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है ये भ्रमवश ही ज्ञात हो रहे हैं। यदि एक बार मन को इन विषयों से हटा देने पर भी यदि वह बार-बार जाता है तो उसे बार-बार हटाने का अभ्यास करे जब तक कि वह पूर्णरूप से हट नहीं जाता। फिर वह मन अपने वश में आ जाता है गीता (६/२६) में भी यही कहा गया है कि “यह स्थिर न रहने वाला चंचल मन जिस जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है उस उस विषय को रोककर उसे बार बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे। “पातंजल योग दर्शन (१/१२) में भी मन के निरोध का उपाय अभ्यास और वैराग्य को ही बताया गया है। उसमें कहा गया है कि “उन चित्त वृत्तियों का निरोध अभ्यास और वैराग्य से होता है। ” गीता (६/३५) में भी अभ्यास और वैराग्य द्वारा मन के निरोध की बात कही गयी है महाबाहो! निःसन्देह मन चंचल है और कठिनता से वश में होने वाला है, परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। ” अतः उस चैतन्य तत्त्व को जानने की एक ही विधि है चंचल मन को स्थिर करना। मन के स्थिर होते ही उस चैतन्य की अनुभूति हो जाती है
( धारणा – १०४ ) भया सर्व रवयति सर्वदो व्यापकोऽखिले । इति भैरवशब्दस्य सन्ततोच्चारणाच्छिवः ।।१२७ ।।
व्याख्या – इस श्लोक में भैरव शब्द की व्याख्या की गयी है कि यह शब्द चार अक्षरों भा ऐर व से मिलकर बना है। इसमें भा का अर्थ है उस चैतन्य का प्रकाश तथा ऐ का अर्थ है क्रियाशक्ति। इसका अर्थ है वह महेश्वर क्रियाशक्ति से संयुक्त होकर अपने वित प्रकाश रूप स्वभाव से सारे पदार्थों का विमर्श करता है अथवा अपनी भा अर्थात् ज्ञात शक्ति तथा ऐ अथवा अपनी क्रियाशक्ति से अखिलविश्व का विमर्श करता है। महेश्वर ज्ञान व क्रिया नाम वाली दोनों शक्तियों का स्वामी है। अतः इसी को भैरव कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ होगा कि भगवान् भैरव समस्त बाह्य एवं आन्तर सभी पदार्थों का अपने से अभिन्न बताकर वह सब प्राणियों को भयमुक्त कर देता है। अपने से भिन्न यदि कोई दूसरी वस्तु हो तो उसी से भय होता है। एक में भय नहीं होता अर्थात् द्वैत ही भय का कारण है।अद्वैत में भय नहीं होता। वृहदारण्य उपनिषद् में भी कहा गया है कि “द्वितीयाद्वे भयं भवति।” इस प्रकार अभेद का बोध कराता है इस प्रकार जो साधक इस धारणा से रात दिन इसका उच्चारण करता रहता है वह स्वयं शिव बन जाता है तथा वह जीवन्मुक्त हो जाता है।
(धारणा १०५) अहं ममेदमित्यादिप्रतिपत्तिप्रसङ्गतः। निराधारे मनो याति तद्धयानप्रेरणाच्छमी ॥१२८॥
व्याख्या- आत्मा ही एकमात्र चेतनतत्त्व है जो सबमें समान रूप से विद्यमान है। इसी को मनुष्य ‘मैं’ और ‘मेरा’ कहता है। मनुष्य की सबसे प्रिय वस्तु उसकी आत्मा ही है जिससे वह प्रेम करता है। वह आत्मा ही ज्ञानस्वरूप है जो सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है। आत्मा आत्मा में कोई भेद नहीं है। वही परमात्मा का परमानन्द स्वरूप है। ज्ञानी हो या अज्ञानी सबकी आत्मा एक ही है तथा सभी उसी से प्रेम करते हैं। यही परमेश्वर का भजन है। शास्त्रों में प्रेम को ही ब्रह्म माना गया है। ज्ञानी और अज्ञानी सभी इसी आनन्दभाव में रहते हैं। आत्मप्रेम से बढ़कर और कोई प्रेम नहीं है। अतः न तो कोई ज्ञानी है, न अज्ञानी और न परमज्ञानी किन्तु वह परमेश्वर ही आत्मस्वरूप में सबमें भासित हो रहा है। अतः साधक को शान्तभाव से अपने आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करते रहना चाहिये। इस जगत् में नाना पदार्थों की कोई सत्ता नहीं है। वृहदारण्य उपनिषद् में कहा गया है कि ‘नेह नानास्ति किंचन’, यहाँ कुछ भी नाना नहीं है। यह भिन्नता ही अज्ञान है। इसलिए मन को निराधार बनाकर अपने परमार्थ स्वरूप के ध्यान का अभ्यास करने से चित्त शान्त हो जाता है जिससे सभी प्रकार के द्वन्द्व शान्त होकर उसको परमपद की प्राप्ति हो जाती है।
( धारणा १०६) नित्यो विभुर्निराधारो व्यापकश्चाखिलाधिपः । शब्दान् प्रतिक्षणं ध्यायन् कृतार्थोऽर्थानुरूपतः ।। १२९ ।।
व्याख्या-योगी को बार-बार इन शब्दों का स्मरण करते रहना चाहिये कि वह परब्रह्म परमेश्वर ही नित्य है वह सदा से है तथा सदा रहने वाला है। वह सृष्टि के पूर्व में भी था, वर्तमान में भी सृष्टिरूप में है तथा भविष्य में भी रहेगा। उसी की सत्ता है तथा वही सब कुछ है उससे भिन्न कुछ भी नहीं है ये सभी उसी के विभिन्न रूपमात्र हैं, वही सर्वव्यापक है, वह निराधार है, उसका कोई आधार नहीं है, वही सबका आधार है, वही अखिलविश्व का अधिपति है आदि ऐसे शब्दों का स्मरण करते रहकर अपने चित्त को एकाग्र कर लेना चाहिये जिससे वह कृतकृत्य हो जाता है। इस धारणा के दृढ़ हो जाने पर वह स्वयं भी अपने को शिव स्वरूप ही मानने लग जाता है। उसे भेद वाली दृष्टि समाप्त होकर अभेद का अनुभव होने लग जाता है कि वही सब कुछ है उससे भिन्न कुछ भी नहीं है। वही सर्वज्ञ है सर्वकर्ता है। ऐसी भावना का विकास होने पर वह सभी विकल्पों से मुक्त होकर परमानन्द स्थिति का अनुभव करने लगता है। भाव यह है कि केवल ईश्वर के नाममात्र के स्मरण से व उच्चारण से साधक को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है धारणा के दृढ़ होने से ही सिद्धि प्राप्त होती है।
( धारणा – १०७) अतत्त्वमिन्द्रजालाभमिदं सर्वमवस्थितम् । किं तत्त्वमिन्द्रजालस्य दाढच्छमं व्रजेत् ||१३०||
व्याख्या – सृष्टि का मूलतत्त्व तो एक ही है। यह सम्पूर्ण दृश्य जगत् उसी का विस्तार है, उससे भिन्न किसी की सत्ता नहीं है। यह जगत् निस्तत्त्व है, सारहीन है। यह इन्द्रजाल के समान दिखाई तो देता है किन्तु वास्तव में यह जैसा दिखाई देता है वैसा है नहीं। यह जादूगर द्वारा दिखाये गये दृश्यों की भाँति भ्रमपूर्ण है। यह सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर का ही स्वरूप है उसे ईश्वर से भिन्न मानना भ्रममात्र है अतः यह मिथ्या ही है। इसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं हैं। व्यवहार में चाहे इसे सत्य मान लिया गया हो किन्तु परमार्थ में यह असत्य ही है। इस प्रकार की भावना दृढ़ हो जाने पर साधक इन सांसारिक विषयों में रुचि नहीं लेता, न इनसे मोह ही करता है जिससे वह मुक्त हो जाता है। अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाना ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है।
( धारणा १०८ ) आत्मनो निर्विकारस्य क्व ज्ञानं क्व च वा क्रिया ज्ञानायत्ता बहिर्भावा अतः शून्यमिदं जगत् ।।१३।।
व्याख्या- यह आत्मा निर्विकार है। इसमें कोई विकार नहीं है। वह एक ही परमतत्त्व है जो चेतन स्वरूप है। इसका कोई रूप, रंग, आकार आदि नहीं है, वह निराकार है। इसे देखा नहीं जा सकता इसका परीक्षण नहीं हो सकता। यह केवल बोध स्वरूप है। सृष्टि में जो भी बोध होता है उसका कारण यही आत्मचेतना है। इसके सिवा अन्य कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो बोध का कारण हो। वह विभाग रहित है उसका कोई विभाग नहीं है। वह एक ही परिपूर्ण है। इसमें ज्ञान और क्रिया जैसा कोई विभाग नहीं है जिससे कहा जा सके कि इसमें ज्ञान व क्रिया नाम वाली दो शक्तियाँ हैं। ज्ञान और क्रिया भी इसके विकार ही है जो इन दोनों से रहित हैं किन्तु बाह्य पदार्थ की सत्ता ज्ञान व क्रिया पर ही आधारित है। बिना क्रिया के पदार्थ की रचना नहीं हो सकती तथा बिना ज्ञान के उन्हें जाना नहीं जा सकता किन्तु आत्मा की रचना न तो किसी क्रिया से होती है न उसे किसी अन्य माध्यम से जाना जा सकता है। अतः वह शून्य स्वभाव वाली है। इस प्रकार यह सारा जगत् भी शून्य स्वभाव वाला है किन्तु भ्रमवश ही वह सब जादूगर के द्वारा दिखाये गये दृश्यों की भाँति ही सत्य प्रतीत होता है। एक आगम ग्रन्थ में शून्य के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया है “नीचे, ऊपर, सभी दिशाएँ, भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश मन, बुद्धि, अहंकार तथा सत्त्व, रज, तम आदि सभी गुण-वे सब निरालम्ब हैं, निराधार है अतः ये शून्य स्वभाव है। शून्य में ही इन सबकी स्थिति है। शास्त्रों में इनको भाव स्वरूप कहा गया है। किन्तु ये सब नितान्त सारहीन है। न इनकी स्थिति इन्द्रजाल से कल्पित वस्तुओं जैसी अथवा स्वप्न में दिखाई पड़ने वाली वस्तुओं जैसी क्षणिक एवं अवास्तविक है। अतः इस भ्रम को दूर कर देना चाहिये कि इनकी कोई पारमार्थिक सत्ता है। ये सभी पदार्थ जो दिखाई देते हैं वे सभी शून्य में प्रतिष्ठित हैं अर्थात् शून्य स्वरूप ही है। इस शून्य से ही शक्ति की प्रवृत्ति होती है। शक्ति से ही वर्ण पैदा होते हैं, वर्णों से मन्त्र और मन्त्रों से ही यह कभी नष्ट न होने वाली सृष्टि होती है। अतः इस जगत् की शून्य के रूप में ही उपासना करनी चाहिये। ऐसा करने वाला साधक कभी नष्ट नहीं होता। इस वास्तविकता का ज्ञान जिसे हो गया वह शिव स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। “
( धारणा – १०९) न मे बन्धो न मोक्षो मे भीतस्यैता विभीषिकाः । प्रतिबिम्बमिदं बुद्धेर्जलेष्विव विवस्वतः ||१३२।।
व्याख्या-ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में बड़ा अन्तर होता है ज्ञानी वह है जिसने सृष्टि के सत्य को जान लिया है जो अज्ञान से मुक्त हो गया है तथा अज्ञानी वह है जिसने सत्य को नहीं जाना तथा वह भ्रम में ही जी रहा है। ज्ञानी और अज्ञानी में संसार तो वही रहता है किन्तु उसकी दृष्टि बदल जाती है, देखने का ढंग बदल जाता है जिससे उसका सारा जीवन ही बदल जाता है। संसारी व्यक्ति द्वैत में जीता है, वह दूसरे को दूसरा समझता है इसलिए वह दूसरों से भयभीत रहता है। ज्ञानी अद्वैत में जीता है वह सबको अपना ही स्वरूप मानता है अतः वह किसी से भयभीत नहीं होता। दूसरे के कारण ही बन्धन होता है, एक में कौन किसको बाँधे जब बन्धन की कल्पना होती है तभी मोक्ष की बातें होती हैं जब बन्धन है ही नहीं तो मोक्ष की कल्पना करना ही व्यर्थ है।ज्ञानी व्यक्ति अपने को चैतन्य स्वरूप आत्मा ही समझता है जो एक ही है, निरावयव है, स्वतन्त्र है। उसको कोई बन्धन नहीं है। वह देश, काल आदि से परिच्छिन्न नहीं है। परिच्छिन्न वस्तु में ही बन्ध और मोक्ष की कल्पना होती है। ज्ञानी व्यक्ति इनसे मुक्त रहता है, इसलिए वह कहता है कि न तो मेरा कोई बन्धन है और बन्धन ही नहीं है तो मोक्ष की बात करना भी मिथ्या ही है जो व्यक्ति माया शक्ति के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को न जानकर सदा भयभीत रहता है। यह द्वैत की मिथ्या धारणा ही बन्धन का कारण है तथा उसी के लिए मोक्ष की कल्पना की गई है। जिस प्रकार खेत में पक्षियों को डराने के लिये एक झूठा आदमी खड़ा कर दिया जाता है जिससे पक्षी डरकर फसल को हानि नहीं पहुँचाते उसी प्रकार मनुष्य को भयभीत करने के लिए शास्त्रों में कह दिया गया है कि इन कामों को करने से बन्धन होता है तथा इनको करने से मोक्ष होता है किन्तु जो तत्त्वज्ञानी है जिसने अपने वास्तविक स्वरूप को जान लिया है उसके लिए ये सब कोरी कल्पना मात्र है। शास्त्रों में योगी के लिए कहा गया है कि “त्रिगुणातीत पथ पर विचरने वाले योगियों के लिये विधि क्या है और निषेध क्या है?” ये विधि निषेध के नियम उनके लिये हैं जो सत्त्व, रज और तम गुणों से बँधे हैं अन्यथा जो इनसे अतीत हो चुके हैं उनके लिये कोई नियम नहीं है। वे स्वतन्त्र होकर विचरते हैं। जिसकी बुद्धि का पूरा विकास नहीं हुआ है वही उलटी बुद्धिवाला पुरुष हर छोटी-मोटी बात से भयभीत रहता है। ज्ञानी व्यक्ति ऐसी बातों की चिन्ता नहीं करता। वह अपने आत्मस्वरूप में लीन रहता है। छोटी-मोटी बात से भयभीत रहता है। ज्ञानी व्यक्ति ऐसी बातों की चिन्ता नहीं करता। वह अपने आत्मस्वरूप में लीन रहता है।
( धारणा- ११०) इन्द्रियद्वारकं सर्वं सुखदुःखादिसङ्गमम् । इतीन्द्रियाणि संत्यज्य स्वस्थः स्वात्मनि वर्तते ।।१३३।।
व्याख्या – मनुष्य को सुख दुःख की अनुभूति इन्द्रियों के द्वारा ही होती है शरीर में चेतना ही सब कुछ है जिसे सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती। ज्ञानेन्द्रियों को जब कोई प्रतिकूल बातें सुनने, देखने, खाने आदि के लिये मिलती है अथवा कर्मेन्द्रियों को जब कोई आघात लगता है तो उससे पीड़ा होती है जिससे मन को दुःख होता है तथा अनुकूलता में मन को प्रसन्नता होती है व सुख होता है। यह सब विचारों के कारण होता है। जब मन स्वचेतना में स्थिर हो जाता है तो उसे सुख दुःख की अनुभूति नहीं होती। अतः साधक को इस इन्द्रिय सुख दुःख की परवाह न करके अपने आत्मा में ही स्थिर रहने का अभ्यास करना चाहिये। यह सुख दुःख मन का धर्म है आत्मा का नहीं।
( धारणा – १११)ज्ञानप्रकाशकं सर्वं सर्वेणात्मा प्रकाशकः ।एकमेकस्वभावत्वाज्ज्ञानं ज्ञेयं विभाव्यते ।।१३४।।
व्याख्या – सभी प्रकाश्य वस्तुएँ ज्ञान से ही प्रकाशित होती हैं। अर्थात् ज्ञान के प्रकाश में ही उनको जाना जाता है। अतः ज्ञान ही उन ज्ञेय वस्तुओं का प्रकाशक है तथा सभी वेद्य वस्तुएँ आत्मा में प्रकाशित हैं अतः सबको जानने वाला आत्मा ही है। इन वेद्य वसतुओं से ही आत्मा का ज्ञान होता है। यदि वेद्य वस्तुएँ न हो तो आत्मा को प्रकाशक कैसे कहा जा सकता है तथा यदि आत्मा प्रकाशक ही न हो तो ज्ञेय को कौन प्रकाशित करेगा? अतः यह मानना पड़ेगा कि वेद्य वस्तुएँ ही आत्मा को प्रकाशक का स्वरूप प्रदान करती है। अतः वेद्य और वेदक दोनों की प्रकृति एक ही है कि वेद्य ही वेदक स्वरूप है तथा वेदक भी वेद्यस्वरूप है। अतः ज्ञान और ज्ञेय में एक ही तत्त्व भासित हो रहा है दोनों में एकता ही सिद्ध होती है। प्रकाशमान वस्तु प्रकाश से पृथक नहीं है तथा प्रकाश प्रकाश्य वस्तु से अलग नहीं होता। अतः ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ये तीनों प्रकाश के कारण ही भासित हो रहे हैं अन्यथा इनमें कोई भेद नहीं है। ये सब चेतन स्वरूप ही है ऐसी भावना करने से साधक शिव स्वरूप ही हो जाता है।
( धारणा- ११२) मानसं चेतना शक्तिरात्मा चेति चतुष्टयम् ।यथा प्रिये परिक्षीणं तथा तभैरवं वपुः ।।१३५||
व्याख्या—भगवान् भैरव यहाँ फिर भैरवी से कहते हैं कि है प्रिये! यह संकल्प विकल्प करने वाला मन, चेतन स्वरूप बुद्धि, प्राण नामक शक्ति तथा आत्मरूप में इनको जानने वाला परिमित अहंता ये चारों जब सब ओर से विलीन हो जाते हैं अर्थात् साधक की चित् शक्ति में विलीन हो जाते हैं तथा ये सब उसे चित्ति के ही चमत्कार ज्ञात होने लगते हैं तो वह साधक भैरव स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। साधक यह मान लेता है कि ये चारों मेरा स्वरूप नहीं है। ये सब माया की उपज है जो भ्रमवश ज्ञात हो रहे हैं। ऐसा मान लेने पर वह अपने को चित् शक्ति ही मानने लग जाता है। जिस प्रकार कुहरे से मुक्त होने पर सूर्य का प्रकाश स्पष्ट दिखाई देने लगता है वैसे ही इन चारों आवरणों के हट जाने पर वह साधक चित्ति के प्रकाश से आलोकित हो उठता है। इसी स्थिति में वह साक्षात् भैरव हो जाता है।
1. पातंजल योग दर्शन ( नन्दलाल दशोरा )
2. योगवाशिष्ठ (नन्दलाल दशोरा) उपलब्ध हैं।
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